Fri. May 17th, 2024

आसमान भी नहीं रोक पा रहा था अपने आंसू

‘तू होली ऊँची डांड्युं मा बीरा
घस्यरी का भेस मा
खुद मा तेरी सड़क्यूं-सड़क्यूं
मि रोणु छौं परदेश मा
ऊँची निसी डांडी
गाड गद्न्या हिसर’….!

हाँ उस दिन भी तो ऐसे ही बरस रहे थे बदरा, बरसात में मानो सब कुछ संगीतमय हुआ जा रहा था,, कैसा जादू सा था , कोई विरह की आग में तो कोई मिलन के असीम सुख में इस संगीत को जी रहा था, मानो आकाश अमृत की बूंदें झर रहा हो कहीं लोग यूँ आनंदित हुये जाते इस बरसात में … न ईंधन की चिंता न टपकते छत की और न ही मवेशियों के भूख की फ़िक्र। आज चारों सुगन्धित पुष्पों की सी सुगंध , वन सम्पन्नता की और …. और मेरा पहाड़ वहां आज भी एक बरसात में ही सारा जीवन बदल सा जाता है…. कितना कठिन है जीना वहां…अतीत के कुछ दृश्य जब बरसात में स्मृतियों में अंकित हो उठते तो रोम-रोम सिहर उठता है.. प्रकृति जहाँ बरसात के संगीत में अपने पूरे लय में नाच रही होती है .. वहीं मेरा पूरा पहाड़ किसी भी अनहोनी की आशंका से उनींदी (जगराता) आँखों से जाग रहा होता है.. साथ ही गांव की औरतें बंद बरसात का इन्तजार करती.. चिंतित मवेशियों के चारे-ईंधन की व्यवस्था के लिए दौड़ती भागती उन पथरीली पहाड़ियों के फिसलन भरे रास्तों पर गिरती पड़ती अपने जीवन की परवाह किये बगैर सबका ख्याल रखती।
देखा मैने जब उदास हो कर दूर पहाड़ी पर अपने खुदेड़ पहाड़ी गीतों से कठोर उन पहाड़ों को भी रुला जाती हैं…. वो दिन भी कुछ ऐसा ही था कितनी खूबसूरत लग रही थी तुम… मासूम सी..भोली सी .. हंसती खिलखिलाती झूमती सी लाड़ली सबकी। तुम अपनी ही धुन में गा रही थी साथी सब मगन हो सुन रहे थे… साथ ही वो पहाड़ी झरना ताल में ताल मिला मानो तुम्हारे गीत को और भी मधुर बनाता चला जा रहा था।
हाँ वो संगीत पहाड़ी गीत का उस एकांत में शायद खुद को तलाशने का जरिया भी था.. उस सुखद अहसास को महसूस कर हम खो से रहे थे .. जंगल और पहाड़ का वो वीराना तुम्हारे गीतों से गुंजायमान हो सभी सखियों को सम्बल दे जाता था… उस दिन भी कुछ ऐसा ही था, अचानक वो मधुर ध्वनि एक चीत्कार के साथ एक पहाड़ और फिर दूसरे पहाड़ के टकराती हुई वापस लौट आई और शांत हो गई … और उस आवाज को हमेशा के लिए लीन कर गई … और आसमान यूँ बरस रहा था मानो वो भी अपने आंसू रोक न पा रहा हो … जैसे आज उस संग पूरा पहाड़ ही बहा ले जाना चाहता हो … पांव यूँ फिसला तुम्हारा दूर गहरी खाई में श्वेतवर्ण तुम्हारा रक्तिम शरीर निश्चेत सा पड़ा ….. आज भी जब बारिश की झड़ी सी लग जाती वो मंजर और मेरी पहाड़ की औरतों की रोजमर्रा की कठिनाइयां मेरी आँखों के सामने घूमने लगती। चाहकर भी इस सुहावने मौसम की खूबसूरती और उस संगीत को सुन पाती हूँ जो बारिश की बूंदों से आज भी उस पुराने टिन की छतों में झंकृत होते हैं …. मन अशांत सा हो उठता है , वो पहाड़ी गीत और संग वो चीत्कार कानो में यूँ गूंजते मानो कह रहे हों बचा लो मुझे …….।

सावन तो गुजरा
बरसात अभी बाकी है
घुमड़-घुमड़ यह
सांवली घटायें ..
हर प्रहर घनघोर
बरसे ये बदरा..
मन तन को डराये…..!
“दीप “

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