और कद्दू की बेल की जगह उग आया कंक्रीट
‘कद्दू और कंकरीट’
सुना तो रही हूं पर आप लोग ये तो ना सोचेंगे कि बस अब कद्दू पर ही बाकी रह गया था सुनाने को ? मगर करूं क्या! मेरे मन में जो आता है वह मैं लिख ही देती हूं। अब आप सुनते हैं कि नहीं, ये आप जानें। हां तो हुआ ये कि हर बरस की तरह ही पिछले बरस भी मैंने शिवरात्रि के दिन बीज बोए लौकी, तुरई, करेला, चचिंडा के। कुछ और बीज बोये कद्दू के। घर के बाहर आँवले के पेड़ के पास। गर्मियों भर उनको पानी दिया। अंकुर आकर बाकी बेलें जहां अपनी-अपनी जगह पर ऊपर की ओर लंबाई में बढ़ रही थीं। वहीं कद्दू की बेल लेटी- लेटी सी छुपती-छुपाती चल रही थी बगल वाले खाली प्लॉट की तरफ। जमीन के उस खाली टुकड़े पर बेल ही नहीं, बल्कि उसके समानान्तर ही बढ़ता जा रहा था घास फूस और झाड़ियों का कारवाँ भी। इन सबसे इस कदर ढकी छुपी होने के बावजूद भी समय आने पर उसके नारंगी से बड़े-बड़े फूल मुझे दिखाई दे जाते थे, जो कहते थे कि अब इनमें फल लगेगा। मतलब कि कद्दू लगेंगे। मैं खुश थी। लेकिन अपने लिए नहीं, उस राह से गुजरने वाली मजदूरिन स्त्रियों के लिए। मैं उन्हें कहती कि -सुनो वहां कद्दू लगे होंगे। तोड़ लेना। लेकिन नहीं, कोई वहाँ झाँकने तक न जाता। मगर जिस तरह बारह साल में तो आखिर घूरे के भी दिन फिरते हैं, उसी तरह महीनों की अनदेखी के बाद उस कद्दू की बेल के भी दिन फिरे। आँगन में खेलते-खेलते एक दिन वहाँ मेरे छोटे बेटे की बॉल गिर गई। मुझे कोई दिखा नहीं आसपास जिसे मैं कह सकूं कि वहाँ जाकर जरा बॉल निकाल दो।
बेटा जिद पर उतारू था कि माँ आप ही ढूंढ़ कर ले आओ ना मेरी बॉल !
अच्छा! मैंने गेट खोला और फिर हिम्मत करके बढ़ चली उस तरफ, जिस तरफ बॉल मिल जाने की संभावना थी। इतने में हमारे मोहल्ले की एक आँटी आ गईं। शायद सबसे पुराना घर है उनका यहां पर। नये आधुनिक मकानों के बीच अब वही एक घर रह गया है, जिसके दालान से किसी भी पहर गाय-भैंसों के रंभाने की पुरानी परिचित सी आवाज आती रहती है और गाहे-बगाहे आँटी भी खाली पड़ी जमीनों पर गाय चराते हुए दिखती हैं। पूछा उन्होंने, तो बताया मैंने कि बॉल गिर गई है। वही लेने जा रही हूं।
‘अरे ! आप क्यों जा रही हैं इतनी घनी झाड़ियों के बीच ? मैं जाती हूं। स्नेह और अधिकार भाव के साथ उन्होंने मुझे रोक लिया। ढूंढती-ढूँढ़ती सी झाड़ियों को अलटते-पलटते हुए वह जो गई हैं तो फिर बॉल वापस लेकर ही आईं। फिर मुझे थमाते हुए उन्होंने इशारा किया एक छोटे से पेड़ की तरफ –
‘देखो’
‘क्या’ ?
‘कद्दू’ !
‘कहां’?
‘वो देखो ना ! पेड़ पर’
‘हैं’ ? ???
हैरान होकर मैं इतनी जोर से उछली कि जैसे पेड़ पर कद्दू नहीं ढोल लटका हो, खुशी में बजाने के लिए।
वो हँस पड़ीं।
बोलीं, अंदर तो और भी हैं।
मैंने कहा- ‘आँटी ! लेकिन ये कदूदू तोड़ के आप मत ले जा लेना। वो मजदूरों के लिए हैं’।
अब तो वो और ज्यादा जोर से हँसी।
अरे ! हमारे तो खुद ही इतनी लगते हैं कि खाए नहीं जाते। दें भी तो किसको दें ! कद्दू खाता ही कौन है ? और हां ! ये सब तो तोड़कर आप ही रख लो, मजदूर नहीं खाते यह सब।
क्यों ?
क्यों नहीं खाते ?
अरे ! दिन भर की मेहनत के बाद शाम को वो लोग इतने थके-हारे होते हैं कि अंडा, मीट, मछली वगैरह के बिना गस्सा नहीं तोड़ा जाता उनसे। ‘अच्छा ! इतने अमीर होते हैं ये लोग’?
और फिर आंटी ने ही लगभग बीस-पच्चीस कद्दू तोड़ के तोड़ कर मुझे दे दिए। मैंने पंक्ति से उन्हें सजा कर रसोई में रख दिया।
शाम को जब ‘ये’ ऑफिस से आए तो देखते ही बोले, अरे ये महीने भर के लिए कद्दू एक साथ खरीद लिये क्या ?
‘नहीं, बगल वाले प्लॉट में लगे हैं’। अच्छा! तुमने तोड़े’ ? आंखें तरेरकर इन्होंने पूछा। ‘नहीं’।
‘गाय वाली आंटी ने’। अभी और भी लगे हैं वहां’।
‘कद्दू लगें चाहे सड़ें। पर तुम वहां मत जाना। साँप होंगे वहां झाड़ियों में।
‘साँप क्या बारहों महीने घूमते रहते हैं। हाइबरनेशन में छह महीने के लिए पूरी सर्दी सोते भी तो हैं’ ।
‘छोड़ो ! इन्हें क्या पता’
ये अक्टूबर था और दीपावली का त्यौहार चल रहा था। लोगों का आना-जाना जारी था। मिलने वाले जो आते गए मैं उन्हें मिठाई के साथ-साथ कद्दू भी देती गई।
हां,सच में !
अपने अड़ोस-पड़ोस, इधर-उधर के अपने परिचितों के घर। अपनी सहेलियों के घर, इनके दोस्तों के घर। सब जगह मैंने मिठाई के साथ कद्दू भी भिजवाए। जहाँ नहीं भेजे वहाँ से उलाहने आने भी शुरू हो गये कि – ‘अरे ! हमारे यहाँ सिर्फ मिठाई भिजवाई ? कद्दू का क्या हुआ’?
क्योंकि आँटी के आने-जाने से रास्ता कुछ-कुछ साफ हो गया था और मैं बाकी के कद्दू भी तोड़ने जा सकती थी लेकिन इनकी खींची लक्ष्मण रेखा को पार करने का साहस मुझमें न था । क्योंकि अगर केचुआँ भी पाँव छू गया तो मैं जोर से आँख बंद कर चिल्लाऊंगी साँप के हिसाब से ही। फिर ये उसे पीट-पीटकर लंबा कर देंगे साँप के बराबर ही । लेकिन तब भी मेरा मन न मानता था । मैं वहां अपने लिए नहीं जाना चाहती थी । मुझको खींचती थी वह भावना, जो मैंने महसूस की थी सुमित्रानंदन पंत की एक कविता ‘यह धरती कितना देती है’ पढ़कर। जिसमें वह लिखते हैं या बताते हैं कि बचपन में एक बार उन्होंने छिपकर पैसे बोए थे। सोच कर कि रूपयों की कलदार फसलों से एक दिन मोटा सेठ बनूंगा। लेकिन नहीं ना ! कुछ न हुआ। बस हुआ इतना कि वह उस बात को भूल गए और फिर उस बात के लगभग पचास बरस के बाद उन्होंने यूं ही उंगली से सहलाकर अपने आँगन की गीली मिट्टी में कुछ सेम के बीज बो दिये । वह उस बात को भी भूल जाते अगर कुछ वक्त के बाद उन्हें उन बीज रोपी हुई जगहों से छोटे-छोटे अंकुर आते हुए न दिख रहे होते । फिर उन नन्हें छातेनुमा अंकुरों की तारीफ में कसीदे पढ़कर जो बेल-बूटे उन्होंने काढ़े सो काढ़े। मगर बाकी का जो वर्णन उन्होंने किया है, वह यह है कि सेम की बेलों में अनगिनत, अनगिनत, अनगिनत फलियां लगी और तब उन्होंने जाने कितने, कितने, कितने लोगों को वो फलियां बाँटी। बिल्कुल मेरे कद्दू जैसा किस्सा था उनकी सेम की फलियों का भी – कि आस में, पड़ोस में, आने वालों को, जाने वालों को, मांगने वालों को, इलाहाबाद के उस बंगले से उन्होंने जाने किस- किसको बड़ी दूर -दूर तक सेम की फलियां भिजवाईं। और जब जी भर खा लीं सबने तो संतुष्टि का एक भाव उन्होंने कविता के रूप में व्यक्त किया कि – ‘ये धरती कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को।
पंत जी की इस कविता के अलावा गाँधी जी का भी एक विचार था जो मुझे बेचैन करता था वहाँ जाकर देखने के लिए कि वास्तव में सत्य कहा था उन्होंने – ये धरती सब की आवश्यकता को तो पूरा कर सकती है किंतु लालच किसी एक का भी नहीं। इस तरह फलते-फूलते कदूदू खाने, बाँटने का मौसम बदलने लगा। बेल मुऱझाने लगी थी। कद्दू भी लगते-लगते जाने कब लगने बंद हो गये। बेल के साथ सारी झाड़ियां साफ कर दी गईं और इससे पहले कि पिछले साल का करिश्मा इस बार भी दोहराया जाता, बोने वालों ने वहां सीमेंट के बीज बो दिये । पिछले बरस वाली कद्दू की हरी-भरी बेल की यादों को आग लगाती हुई सी धड़ाधड़ उग आयीं वहाँ कंक्रीट की बेल।
खाली पड़ी जमीन का बेल के सानिध्य वाला उपजाऊ उल्लास दबकर रह गया फिर रेत, बजरी के ढेर तले। अब ये अपना घर, दूसरे का घर और हर तरफ बस घर ही घर देखकर निकल कर रह जाती है बरबस एक आह सी – उफ्फ़ ! ‘ये धरती ! कितना सहती है।
प्रतिभा की कलम से