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गिलहरी कोई इंसान थोड़े है जो चंद अन्न के दानों के लिए लड़े

“एक आम का पेड़ है , एक लीची का। एक गिलहरी सर्र से उसपे चढ़ी और उतर गयी”..ये तुम बहुत अच्छा लिखती हो ! हां, यही तो कहा था उसने।
गिलहरी पर तो मैंने कभी लिखा ही नहीं। फिर भी उसकी ये बात गुदगुदा गई मुझे। दीवाल पे, पेड़ पे चढ़ती-उतरती गिलहरी भी ऐसे ही गुदगुदाती है कभी-कभी। जब लगता है मेरे ही बदन से सरसरा कर फिसलती हो जैसे। गिलहरी को पालने का बड़ा मन हुआ मेरा, जब मैंने महादेवी वर्मा का संस्मरण ‘गिल्लू’ पढ़ा। पर पढ़ते-पढ़ते जब मैंने ये भी पढ़ा कि गिलहरी की उम्र महज दो साल होती है, तो टल गया इरादा। सोचा अपन नहीं पड़ेंगे इस झमेले में। महादेवी होना बड़ी बात है। आँसुओं का समंदर चाहिए और बहाने के लिए मसले भी। लेकिन गिलहरी को छूने, पकड़ने की हसरत ज्यों की त्यों रही। गिलहरी पास से तो गुजरी कई बार…पर हाथ नहीं आई कभी। तरकीब सुझा दी नेहरू जी ने। मैंने पढ़ा कि जब दून जेल में वो घंटो एक ही जगह पर बैठे-बैठे किताब पढ़ते रहते तो गिलहरी उन्हें पेड़ समझ कर उनके पैरों पर सरसरा के घुटनों तक चढ़ जाती और जब नेहरू जी गर्दन उठाते तो उनकी आँखे देखकर गिलहरी समझ जाती कि ये पेड़ नहीं, इंसान है।
गिलहरी को गच्चा देने के लिए मैं भी बैठ गई एक दिन चार बड़े गमलों के झुरमुटों के बीच। पहला गमला नीम का था। दूसरा भी नीम का .. तीसरा और चौथा भी नीम का ही था। पहले तो गिलहरी कहीं दिखी ही नहीं। कुछ देर बाद वो नजर आयी तो.. पर मेरी तरफ आने के बजाय वो मुझसे नजर चुरा के दूसरी तरफ निकल गई।
चालाक हां !
समझ गई वो कि ये नेहरू नहीं प्रतिभा है। चलिए कोई बात नहीं दिल को समझा लिया ये कह के – ‘प्यार को दूर से निहारना ही ठीक’। ऐसा ही धोखा बरसों से गौरेया भी मुझे दे रही है। मैं हर सुबह ये सोच कर दाना डालती हूं उनके लिए कि क्या पता कभी चुगने के बाद हो जाये उनका मूड और वो बैठ जायें मेरे कंधो पर, हथेली पर! पर नहीं! ये तो जैसे रट के आयी हैं ‘बहेलिया’ वाली कहानी। पास जाते ही फुर्र हो जाती हैं। कभी तो इनाम मिलेगा चुग्गा फेंकने का। यही सोचकर आज भी दाना डाला तो देखा गौरेया के रंग जैसी, मगर गौरेया के ढंग से जुदा कुछ !
अरे !
गिलहरी ?
ठिठकी मैं और ठिठक गई गौरेया भी। सहमे हुए कबूतर, घुघुती, तोता.. बैठे हैं गेट के इस तरफ और उस तरफ। डर मुझे भी लगा। अब पंछी भूखे रह जायेंगे ?? भूखे तो मेरे बच्चे भी रह जायेंगे अगर टाइम से टिफिन न बना तो!पर फिर सोच लिया कि ‘बना लेंगे कुछ शॉर्टकट’..! इस नाटक की समाप्ति से पहले मैं खिसकने वाली नहीं यहां से। यही सोचकर मैं जमकर बैठ गई वहीं बरामदे में। मैं देखती रही और गिलहरी टुक-टुक-टुक कर इत्मीनान से चुगती रही दाना। कुछ देर बाद एक गौरेया ने हिम्मत दिखायी। एक सहमी सी फुदकन भरी बाजरे के दानों पर। गिलहरी ने आँख उठाई, पर बिना प्रहार, बिना विरोध किये फिर मस्त हो गई दाना चुगने में। अब गौरेया भी चुगने लगी। उस अकेली को देखकर अन्य पंछियों की भी हिम्मत बढ़ी और वो भी बैठ गये दाना चुगने। पहले गौरेया फिर घुघुती, कबूतर, तोते और अंत में कुछ अनाम पंछी भी बारी-बारी से दाना चुग के उड़ गये। पर गिलहरी उनके मुकाबिल बड़ा जीव है तो डटी रही बाजरे के आखिरी दाने तक। नाटक का मंचन कुशलता से संपन्न हुआ। मेरी भी दु:श्चिंता खत्म हुई। नाहक जान हलकान हुए जा रही थी पंछियों के वास्ते।
जो छोटी सी गिलहरी इस कलियुग में भी श्रीराम की अंगुलियों के निशान अपनी पीठ पर लिए फिर रही है, चंद अन्न कणों की खातिर उससे अधर्म की अपेक्षा ! नहीं…नहीं गिलहरी बड़ी चीज है। वो कोई इंसान थोड़े ही है !
प्रतिभा की कलम से

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