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तितली के पंखों ने बांध लिया उसका मन

किसी महानगर के एक छोटे से फ्लैट में एक युवक रहता था। उसके दिल में तमाम तरह के सुन्दर-असुन्दर , अच्छे-बुरे , उल्टे-सीधे खयाल आते थे लेकिन उसका दिमाग उन्हें करीने से सजा लेता था।
कहने का मतलब है कि वो लेखक था किन्तु अपने शहर , अपने आस-पास और अपने घर के दमघोटूं माहौल के कारण वो उन्हें कागज पर उतारने का मन नहीं बना पाता था। एक दिन ऐसी ही किसी कुंठा से घिरा वो यूं ही बेवजह घूमते-घूमते एक पार्क के सामने से गुजरा और जाने क्या सोचकर वो वहां बैठ गया। हरी-भरी घास थी वहां , फूल भी थे पर धूल-धूसरित !! उसे कुछ अच्छा सा लगा ये सब क्योंकि उसके मन जैसा ही था उस पार्क का हाल . वहीं उसे एक कागज का टुकड़ा मिल गया और उसने अपने मन का हाल उस पर उड़ेल दिया।
कुछ ताजा-कुछ हल्का महसूस करते हुए वो उस दिन घर में घुसा। अब वो प्राय: वहां आकर अपनी कविताऐं लिखा करता। यहां उसका खूब मन लगता था लेखन कार्य में लेकिन कोई थी जो उसका ध्यानभंग करती थी- ‘तितली’।
उसे तितली अच्छी लगती थी किन्तु जहरीली हवा का असर रगों में था कि जैसी दमघोंटू जिन्दगी वो जी रहा था वैसा ही स्वाद वो उस तितली को चखाना चाहता था उसे पन्नों के बीच दबाकर !!!! . किताब में रखी फूल की पंखुड़ियों को साथ देना चाहता था शायद तितली के टूटे पंखो का .
ये सिलसिला चलता रहा लेकिन तितली उसके हाथ न आयी !! फिर एक दिन वो यूं ही आंख मूंदे सिर टिकाये बैठा था कि तितली उड़ते हुए आयी और बैठ गयी उसके हाथ पर। इस ‘स्पर्शहीन’ स्पर्श का उसे पता न चला किन्तु जब उसने आंख खोली तो उसका तन-मन स्पन्दित हो उठा। तितली के पंखो ने बांध लिया उसका मन !!
जाने कितनी देर तक तितली बैठी रही उसके हाथ पर और उसका मन उड़ता रहा तितली के पंखो पर। आज पहली बार उसने एक पेंजी का पौधा लगाया था अपनी बालकनी में क्योंकि हू-ब-हू
तितली सा ही तो दिखता है पेंजी का फूल।
‘तितली का हाथ पर बैठना नसीब की बात थी पर पेंजी को तितली समझ छू लेना उसके अपने हाथ में था’। मान लेना चाहिए कि..प्रकृति ही प्रेम करना सिखाती है

प्रतिभा की कलम से…

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