पेड़ों से चिपक कर गौरा देवी और सहेलियों ने बनाया इतिहास
सर्दियों में राजस्थान यात्रा के दौरान जोधपुर के एक गाँव में कुछ देर ठहरने का मौका मिला। उस गाँव में लोग मिट्टी के बर्तन, मिट्टी की ही कलाकृतियां और कपड़ों पर ब्लॉक प्रिंटिग का काम करते हैं। पर्यटकों के सामने ही काम करने की तकनीकी का प्रदर्शन करके वो प्रेरित करते हैं उन्हें अपनी मेहनत से तैयार सामान खरीदने को। वस्तु की उत्कृष्टता और ‘स्वदेशी’ का ये बेहतरीन उदाहरण कामयाब भी कर जाता है उनके सामान की उन्हें उचित कीमत दिलवाने में ।
इन गाँवों में सब विश्नोई समाज के लोग हैं। वही विश्नोई समाज जिसने काला हिरण शिकार मामले में सलमान खान को सजा दिलवाने में अहम भूमिका निभाई। बिन माँ के हिरन को अपना दूध पिला के यहाँ की स्त्रियाँ अपने बच्चों की तरह पाल लेती हैं। कुदरत इन्हीं के घर-आँगनों से शुरू होकर बाहर की दुनिया देखती है शायद। इसीलिए प्रकृति के विविध रंग इनकी बनाई चादरों के प्रिंट में हर जगह नजर आते हैं। उन्हीं में एक प्रिंट था खेजड़ी वृक्ष का। पूछने पर उन्होंने बताया कि जो महत्व आप लोगों के लिए तुलसी का है , वही हमारे लिए खेजड़ी वृक्ष का। आगे वो बताते हैं कि इस बहुपयोगी वृक्ष को काटना पहले पाप था, अब अपराध है। आज से तीन सौ साल पहले जोधपुर के राजा के महल की शुरूआत करने के लिए इस पेड़ की लकड़ी का जोरों से कटान शुरू हुआ। तब खेजदड़ी गाँव की अमृता देवी ने इस पेड़ से लिपटकर कहा- ‘सिर साटे रूख रहे तो भी सस्ता जाण’ मतलब कि सिर कट जाये लेकिन पेड़ जिन्दा रहे तो भी जान की इस कुर्बानी को सस्ता मानना चाहिए और वास्तव में अमृता देवी विश्नोई के कट जाने के बाद पेड़ बचाने के लिए ३६३ और लोगों ने अपने सिर कटवा दिये। चकित कर गयी ये बलिदानी कहानी मुझे। पेड़ के लिए प्रयुक्त शब्द ‘रूख’ जोड़ गया राजस्थान की जड़ों को हमारे पहाड़ से। हां, हमारे उत्तराखंड में भी कई जगह पेड़ को ‘रूख’ कहा जाता है। खेजड़ी जैसे ही बहुपयोगी बाँज और देवदार के वृक्षों को बचाने के लिए उत्तराखंड में भी सन १९७३ में ऐसा ही इतिहास दोहराया गया जब रैणी गाँव की गौरा देवी और उनकी अन्य साथी महिलाओं ने पहले तो दरांती लेकर पेड़ काटने वालों को खदेड़ दिया,पर जब वो ज्यादा संख्या में लौटकर आये तो गौरादेवी ने जंगल की रक्षा करने के लिए पेड़ों का आलिंगन कर लिया कि पहले हमें काटकर फेंक दो ! तब पेड़ों पर आरी चलाना। वास्तव में पेड़ न रहने का दर्द वही समझ सकते हैं जो घास, पानी और लकड़ी के लिए सुबह घर से जंगल को निकले और शाम गये घर लौटे। क्योंकि जंगल बहुत-बहुत दूर होते थे।
ऐसे में गाँव के पास वाले उस जंगल पर आरी चलते हुए देखना कैसे कोई महिला बर्दाश्त कर सकती थी ।
इस घटना को महज सामान्य ज्ञान के लिए ‘चिपको आन्दोलन’ के तौर पर सब जानते हैं । लेकिन बात की गंभीरता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस घटना का विवरण उस वक्त BBC लंदन से प्रसारित किया था। पर्यावरण बचाव के नाम पर पुरस्कार किसी को भी दे दिये गये हों लेकिन प्रकृति से प्रेम की भावना और उसे बचाने के लिए दृढ़-निश्चयी गौरा देवी हमारे लिए अमर हो गयीं।
गौरा देवी का जन्म उत्तराखंड के लाता गाँव में हुआ था । विवाह हुआ भेड़पालक मेहरबान सिंह के साथ। पति का निधन जल्दी ही हो गया । इन जंगलों के फल-फूल, घास, लकड़ी, पानी ही अब गौरा देवी और उसके परिवार के माई -बाप थे । ये भी अगर छिन जाता तो वो और उन जैसे अनेक परिवार फिर कहां जाते ? कैसे जीवित रहते। यही सोचकर उन्होंने अपने गाँव की २७ महिलाओं के साथ चिपको आन्दोलन की नींव रखी। आन्दोलन प्रभावशाली साबित हुआ । अन्य गाँवों की महिलाओं ने भी कमर कस ली और चिपक गईं पेड़ों से। पूरे भारत में जब गौरा देवी के इस आन्दोलन का डंका बज गया तो सन १९८० में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने वन संरक्षण अधिनियम पारित करवाया। इस विधेयक के तहत अगले १५ वर्षों तक हिमालयी क्षेत्र के वनों को काटने पर प्रतिबंध लगा दिया और फिर विधेयक खत्म होने की तिथि से पहले ही ६६ वर्ष की अवस्था में सन १९९१ में गौरा देवी पर्यावरण को हरा-भरा रखने की जिम्मेदारी दुनिया को सौंप सदा के लिए इस जहाँ से जाती रहीं।
प्रकृति जीवन और जीवन में सभी रिश्तों का द्योतक है । इसलिए पहला प्रेम प्रकृति के नाम।
पेड़ों के इर्द-गिर्द घूम कर प्रेम गीत गाने से पहले आइये पेड़ों का आलिंगन करे। शाखों को चूमकर शुक्रिया कहें अमृता देवी और गौरा देवी की कुदरत के लिए दिलेर दीवानगी के नाम। आज गौरा देवी की जयंती है। पर्यावरण के बिगड़ते हालात के मद्देनज़र उन्हें याद करने की सख़्त जरूरत है। आइये सब लोग उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करें एक-एक पेड़ लगाकर।
प्रतिभा की कलम से