भँवरे के देश में सावन नहीं बरसा उस साल
हिमालय की तलहटी में प्राकृतिक रूप से खिला हुआ एक बाग था। उस बाग में अनेक रूप-रंग के छोटे-बड़े फूल थे। सैकड़ों रंगीन तितलियों का उसमें आना-जाना था। तितलियों एक फूल से दूसरे फूल पर डोलती रहतीं। इठलातीं खूब अपने रूप पर, उन्हीं में वो लाल पंखो वाली तितली भी थी जो शोख और चंचल थी बहुत .. मगर उसका दिल उतना ही सादा। हर फूल पर बैठती, बात करती। पूरा बाग उस पर फ़िदा था। हर कली उसकी दीवानी.. दिन मस्तीभरे थे।
एक दिन दूर देश से एक श्यामल भँवरा उस बाग में आया। वो दिनभर फूलों का पराग चूसता और गुंजन करता। लाल तितली को उसका गीत बहुत भाता और वो एक अड़हुल के पौधे पर बैठ उसके गाने का इन्तजार करती। भँवरा पराग चूसने में मगन बीच-बीच में उसे ताकता.. फिर धीरे-धीरे वो भी उस अड़फूल के फूलों पर बैठकर तितली को निहारने लगा। कहा किसी ने कुछ नहीं ! बस भँवरे की निहार और तितली का इन्तजार ही उन दोनों के बीच प्यार का इक़रार था। हिमालय का वो बसंत यादगार हो गया बाग के लिए.. डालियां फूलों से लकदक टूट-टूटकर गिर पड़ती थीं। दिन धूप से चटकीले, रात चांदनी में नहायी जान पड़ती थीं। मौसम अब करवट चाहता था। वो बदलने लगा। फूलों का खिलना कम हुआ.. भँवरे का आना भी कम होने लगा बाग में , मगर तितली का भँवरे के लिए इंतजार बढ़ता गया …
तन्हाई से टूटकर एक दिन तितली ने मूक आंखो में पूछ ही लिया भँवरे से.. ‘क्या तुम्हें अब मुझसे प्यार नहीं’ ??
भँवरा चीखकर बोला.. नहीं !
‘मैं उकता गया हूं तुम्हारी शोखियों से.. ये चमकीले पंख चुभते हैं मेरी आंखो में… मेरा काम है नित नये फूलों पे मंडराना। मैं जा रहा हूं अब इस बाग से…
और वो उड़ चला अपने देश.. तितली का रोम-रोम घायल हो गया.. भँवरे की कांटे सी चुभती सच्चाई सुनकर.. वो रातभर रोती रही अड़हुल के फूल पर बैठकर। नन्हीं सी तितली के पर थोड़े से आँसुओं से भीगकर भारी हो गये, उसके हल्के से पंख..सुबह फूल में बंद उसकी निष्प्राण देह मिल गई मिट्टी में.. सिहर उठा बाग का पत्ता-पत्ता तितली के शोक में .. अड़हुल ने ठंडी आह भर एक आंसू ढ़ुलकाया तितली की कब्र पर .. आह की तासीर निकली बहुत गर्म !
सुनते हैं , उस बरस भँवरे के देश में सावन नहीं बरसा…
प्रतिभा की कलम से