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महिलाएं होती हैं सामाजिक कुरीतियों का शिकार

अभिशाप
आज हमारा देश बहुत आगे बढ़ गया हैं। फिर भी बहुत समुदाय ऐसे हैं जो कि बहुत पिछड़े हैं। पढे-लिखे न होने के कारण सामाजिक कुरीतियों को बढ़ावा देते हैं। इसका शिकार अकसर महिलाएं ही होती हैं।

कुंती नाम की एक लड़की थी। चार भाई और एक छोटी बहन। इतना बड़ा परिवार और बेचारी कुंती! अरमान तो बहुत थे, ‘मैं भी स्कूल जाऊँ। पर ऐसे घर में पैदा हुई हूँ यही सोचकर रह जाती थी’
बात भी सही थी कि गरीब घर में पैदा होना एक कलंक ही तो है। सुबह माँ-बापू काम पर जाते और कुंती सुबह का नाश्ता बनाती। भाई और बहन को नहलाना, खिलाना, कपड़े धोना, पानी भरना। फिर माँ-बापू के लिये खाना बनाना..
यह एक अभिशाप ही तो था लड़की होने का! हर रोज तो माँ के साथ जाकर दूसरे घरों में कपड़े-बर्तन धोना उसकी दिनचर्या थी। वो अकसर ख्वाब देखा करती थी, कि वो भी अपना बचपन जिये।
कुंती जब भी कोठियों में जाती तो बड़े घर के बच्चों को देखकर उसका भी मन खेलने-कूदने और अच्छा खाने का करता। छोटे से मन में यही बात आती ‘अगर मेरे माँ-बापू पढे-लिखे होते कुछ नोकरी कर रहे होते तो आज मेरी यह दशा नही होती।’
महज़ 15 साल की उम्र में उसकी शादी कर दी गई। छुईमुई सी प्यारी कुंती फिर एक औरत होने का बोझ ढो रही थी। पति ने दहेज़ की मांग की थी, हालांकि काफी कुछ तो दिया था गरीब माँ बाप ने। पर इस चली आ रही प्रथा को क्यों छोड़ना हैं! चाहे पढा-लिखा हो या नहीं,पर पुरुष होने का समाज में वर्चस्व कायम है इसलिये सभी तबके के ‘पुरूष यही सोच लिए है कि उनका मान-सम्मान कम नहीं होना चाहिए।’
कुंती पड़तालित होती गयी पर ज़ुबान नहीं खोली। माँ ने विदा होते वक़्त कहा था उस घर से शिकायत नहीं आनी चाहिए। अब तुम्हारी अर्थी ही वहाँ से निकलेगी। बेचारी डरी-सहमी सी रहती और सभी दुःख सहन करती। फिर काम पर भी जाती जो माँ ने सिखाया था। शाम को घर आना तथा पूरे परिवार का ध्यान रखना। रात को दारू पीकर आये पति की मारपीट का सिलसिला भी कायम था।काफी वक़्त बीत गया और उसकी भी तीन बेटियां हुई। समाज, पति और परिवार की उपेक्षित कुंती तीसरी बेटी के होने मे स्वर्ग सिधार गयी। अच्छा हुआ उसकी आँखे बंद हो गयी। बेटे के लिए न जाने कितनी बार उसको दूसरा जन्म लेना होता और अपनी बेटियों के लिए तिल-तिल मरना पड़ता। युग बदल रहा है पर लड़के होने की चाह कभी खत्म नही हो सकती है। और अगर लड़की होती है तो कुसूरवार भी औरत को ही माना जाना कहाँ का इंसाफ है!
अनेकों कुंती समाज से पूछना चाहती हैं, ‘जो दुर्दशा कुंती की हुई क्या उसकी बेटियो के साथ भी वही होगा? क्या यह पुरुष प्रधान देश है जहाँ लड़की होना आज भी समाज में अभिशाप हैं?’ यह एक अज्ञानता या असाक्षरता हैं ???

छोटे हाथों ने पकड़ ली है पतवार
जाने कब लगेंगी नैय्या,इनकी पार
ग़रीबी के भंवर में उलझी नन्हीं जान
दिल टूटता है देख मज़बूरी के वार

~कविता बिष्ट
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