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मेरे गांव की महिलाएं जान डाल रही बारिश में… शब्द रथ सोमवार स्पेशल

सावन की फुहारें थीं
दूर धान रोपती महिलाएं थीं
भीगती, गाती अपनी ही धुन में
रोपती अपनी खुशियां थीं
मन देख मचल उठा मेरा भी
जिया यही पल मैंने भी
वही गीत फिर मेरे लबों पर
बरसों बाद फिर चहक उठा तन
थिरकते पग बारिश की धुनों संग
वही मेरे गांव की महिलाएं
उसी खट्टी मीठी नोक-झोंक संग
खिलखिला उठी फुहारें
फिर सुकून की
मग्न हो उठी मैं भी
देखकर उनका यह रंग
मधुर पहाड़ी गीत
फिर गूंज उठा वादियों में
छनकता बरखा संग
याद दिला रहा बीते रंग
ये मेरे गांव की महिलाएं
जान डाल रही बारिश में
जी रही इस मिट्टी संग
खुशियों की इस पौध को
रोप रही नई आस लगाकर
हाँ सावन की फिर वही फुहारें …

“दीप”

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