याद है गांव की रामलीला
गाँव की राम लीला
राम और राम की लीला तो हमेशा से ही अनंत रही है, हम सब कुछ जानते हैं कि राम ही धनुष तोड़ेगे, लक्षमण ही सूर्पनखा के नाक कान काटेंगे, बेरों को झूठा सबरी ने ही करना है और बाली का वध भी राम ही करेंगे, सुग्रीव सिर्फ गदा लेकर अभिनय करने वाले हैं… फिर हनुमान तो हनुमान ही है उनकी बराबरी कौन कर सकता है, वो तो सीधे अपनी पूंछ पर आग लगाकर पूरी लंका जलाने वाले हैं..
और हाँ अंगद का भारी भरकम पैर उसको भला कौन भूल सकता है जब धै धड़ाम धड़ाम एक से एक बलशाली उसे उठाने की कोशिश में गिर पड़ेंगे।
और फिर जगत जननी सीता मैया किसी लाचार स्त्री की तरह अशोक वाटिका के एक वृक्ष के नीचे अपने पतिवृता, सतीत्व और धैर्य की परीक्षा देती हुई..हम पूरी कहानी से अवगत है लेकिन फिर भी रामलीला के मंचन को लेकर ये कौतूहल जब भी स्मृति पटल में हिलोरे मारता है,
जीवन को एक नव उमंग में संचारित करता है,
नवरात्रे आने वाले है अक्टूबर महीने में और इसी वक्त राम लीला का गाँव में सोचा जा रहा है, क्योंकि मौसम भी अनुकूल है और सबसे बड़ी बात जगह भी खाली है। पर्याप्त रुप से, धान कट चुका है अब तक, लवाई मंडाई हो गई है और अब गेहूँ बौने है खेतों में , तो इस तरह कम से कम जगह की तो कोई दिक्कत नहीं है। अब ये वो वक्त था जब सभी लोग गाँव में ही रहते थे, बस दो चार ही अति मति (ज्यादा) पैंसे वाले बिरला लोग ही देशी थे मतलब शहर में रहते थे।
ऐसे में आपके पास चरित्र चित्रण करने वाले पात्रों की भी कोई कमी नहीं है,
बल्कि टेंन्शन ये है कि किसको रखे और किसको छोड़े, अब इस सूरत-ए-हाल में गाँव के बड़े बजुर्ग वरिष्ठ लोगों ने सभी बिन्दुओं पर चर्चा के लिए एक खुली बैठक करवाने का निर्णय लिया। सब लोगों की आपसी सहमति में सभी किरदार नियुक्त हो गये, रावण गाँव के सबसे बड़े और धांसू टाइप व्यक्ति बने और राम लक्ष्मण सीता गाँव में सबसे प्यारे खूबसरत मासूम से दिखने वाले बच्चे जिनमें एक मर्यादा और आदर्श हर भाव में टपकता हो, (गौ मंवार ) गाँव के सभी परिवार पर चंदा देने की फांट भी लगेगी क्योंकि कोई भी आयोजन बिना धन रुपये के तो सम्भव नहीं है और गाँव के सभी लोग खुशी खुशी से देने को तैयार भी है।
ये सब निर्णय के साथ-साथ हमारे राम प्रसाद बोडा जी को भी पत्र देकर बुलावा भेजने की आपसी सहमति हुई क्योंकि वो गाँव के बहुत सूझ बूझ और विद्वान व्यक्तियों में से एक है, बोडा जी हरिद्वार में किसी मंदिर को सम्भालते हैं। वो शास्त्रों के प्रकांड ज्ञाता है, उनकी कही गयी हर बात लक्ष्मण रेखा होती थी।
मुझे उनके सम्बन्ध में सबसे ज्यादा जो बात याद आती है , वो जब वो देश से गाँव आते थे, मानो जैसे एक त्योहार आ गया हो गाँव के बच्चों के लिए, जिसने भी सुना बोडा जी घर आ गये सब भागे भागे उनके खोल्दे आंगन में बैठ जाते थे, वो इसलिए कि बोडा खूब सारी मिठाई लेकर आते थे और मिठाई मैदे की फूली हुई बूंदी, सबको अंजुली भर भरकर मिलती थी, मुझे तो उस समय हमेशा ही ये लगता था कि मेरे हाथ काश थोड़ा और बड़े होते तो कुछ और मिठाई भर लेती हाथों में, क्या समय था वो भी आभाव में भावों से ओतप्रोत तो सभी बच्चों को मिठाई मिल चुकी है और सबसे ज्यादा आज मेरी सखी पूनी (पूनम) इतरा रही है कि उसके नाना घर आये है, लाजिमी है उसका तड़ी मारना आखिर आज उसका ही दिन है। अब आज साम को रामलीला मंचन होना है और सबको अपने अपने काम बंट चुके है, पर्दा गिराने उठाने वालों से लेकर, चाय पानी व्यवस्था और थोड़े-थोड़े अन्तराल में दर्शक बोर ना हो उसके लिए कॉमेडी नौटंकी की भी पूरी स्क्रिप्ट तैयार की गई है। पंचायती भवन से रामलीला के कपड़े, मुकुट, पूरा ड्रैस कॉस्चूम निकाल लिया गया है। तिरपाल झंडा डंडा सब तैयार है, राम अपने मुकुट को बार-बार पहन रहे हैं और उतार रहे है। रावण बड़ी-बड़ी मूँछे लगाकर सीधे खडक चाल में जौर जौर से हा हा हा हा!!!!!!!!!! हंसते हुए इधर उधर जा रहे हैं,
सीता माँ भी धोती लपेटने में ही उलझी हुई है और हनुमंत लल्ला उछल-उछल कर अभी राम लीला शुरु ही नहीं हुई और हंसा-हंसा कर पेट दर्द करा दे रहे हैं। जामवन्त जरा नाराज़ चल रहे है कि छोटा सा रोल देकर ये बड़े बड़े बालो वाला रीछ बना दे रहे हो। जब गाँव में इतना कुछ हो रहा है तो एक परफॉम तो मुझे भी देनी ही है, उम्र उस वक्त सात आठ साल की थी, डांस के लिए कभी मौका मिल जाता था और गाना हमेशा एक ही होता था “कृष्णा खड़े मधुबन में हँसे मन मन में राधा के घर जाना है ”
जब तक अपनी बारी नहीं आ जाती मन मस्तिष्क में परशुराम के खंडित हुए धनुष गर्जना की तरह ही आवाजें हो रही है,,,
और इतने में संचालक ने मेरा नाम ले लिया कमाल बात ये है कि ! ऐसे तो सब कोई ज्योति ,कोई लाटी और कोई भांटी , गाँव में मुझे बुलाते थे, लेकिन मंच से नाम ज्योत्स्ना एनांउस होता था जिसे गाँव में कोई नहीं जानता था सिर्फ एक व्यक्ति के अलावा वो है हमारे प्रधानाअध्यापक, दादा जी, जिन्होंने दाखिले के वक्त स्कूल के रजिस्टर में लिखा होगा, दादी भी नहीं जानती थी ये नाम। अब बस मैं पूरी आत्मविश्वास के साथ मंच पर हूँ और यकीन मानिए उस वक्त भी ईनाम के ढाई-तीन सौ रुपये हम कमा ही लेते थे।
इसके साथ-साथ साइड रोल पर्दा उठाने और गिराने का भी कभी मुझको मिल जाता था।उस अभिनय का मजा शायद शब्दों में ना बँया हो, क्योंकि हम पर्दे के पीछे भी हैं और आगे भी, पूरे मंच पर कब्जा एक तरह से, तालियाँ यहाँ से आरम्भ कर रहे हैं और पूरी दर्शक दीर्घा एक लय और स्वर में उछल-उछल कर तालियों से सभी रामलीला के पात्रों का हौसला बड़ा रहे है।
ये जीवन का वो दौर था जब मैं जिंदगी सही मायनो में जी रही थी। नकलीपने बनावटी दुनियां से कोशों दूर मैं सिर्फ और सिर्फ उस वास्तविकता के करीब थी जिसे हम अभागे अब खोजना भी चाहें तो भी ना मिल पाये।
तेरह-चौदह दिन तक चल रही गाँव में यह रामलीला गाँव को संगठित करने का एक उद्देश्य होता था। चौपाल लग रही है, हर दिन रात के अंश पर विचार हो रहा है, दोहे चौपाई याद करते हुए रियलसल हो रही है। फिर आपस में बातें आज इसका पाठ है कल उसका पाठ है, सबसे ज्यादा आनंद दर्शक रावण के संवाद का लेते थे,
भले ही वो धर्म और सत्य के विरूद्ध हो। क्योंकि मानव गुण बुराई की और जल्दी आकर्षित होता है ये उसका सच्चा स्वरूप है और अच्छाई का वो ज्यादातर नकाब ओढ़े हुए होता है। रामलीला नर को नारायण जैसा बनने का एक मंचन है हम सीखते है हर पात्र से जीवन के चरित्र को जीने की सीख, भाई भरत जैसा हो, भक्त हनुमान की तरह, पत्नी हो तो वो सीता हो, और पुत्र राम जैसा,
माता कभी भी कैकयी न शोभते, और भाई नेक ही क्यों नहीं मगर भाई के नाते विभीषण कभी भी पूज्यनीय नहीं उत्साह उमंग सहजता सरलता से परिपूर्ण, सीमित संसाधनों में एक बड़े उद्देश्य को सामने रखती हुई,
प्रेम भाइचारे, जीवन का सार और उस सार को जीवंत करती हुई मेरे गाँव की ये रामलीला जिसे मैंने आपके सम्मुख रखने की एक छोटी सी कोशिश की है।
ज्योत्स्ना जोशी