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ख़्वाबों की बौछारों में, इक दिल का भी तो कमरा है…

ख्वाबों की बोछारों में ,
इक दिल का भी तो कमरा है,
लेकिन सुना है वो अक्सर खाली-तन्हा’सा है,

उसकी पहली खिड़की पर,
अटकी है इक सूरत भी,
किवाड़ पर लगता है,
कोई इंतज़ार पर
बैठा तकता है,

इक सूनी दीवार जिस पर,
कैलेंडर कई बरसों पुराना,
उलझी सी तारीखों में,
टूटी सहमी साँसे गिनता है,

झाईं पड़ी सी कुछ तस्वीरें,
रंग सुर्ख जवां छोड़ गई,
पर उस में भी इक चेहरा है,
जो सज़्दा भी करता है,

कुछ गमलों में कुमलाये
कई फूल चाक गिरेबां है,
टेबल-कुर्सी-सोफों पर,
अखबार रोता सिसकता है,

इक कंगन इक पाजेब
इत्र की शीशी और एक घड़ी,
उनके बीच में एक रुमाल
कुछ बतियाता दिखता है,

कितनी रुहानी खुश्बू है
घर के हर इक जर्रे में,
इक शेर यहीं पर,
शमां बन कर जलता है,

“दीप”

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