Wed. Dec 17th, 2025

अंजलि भर मोरपंख वैराग्य देकर ही मिले …

उत्तराखंड साहित्य सम्मेलन (साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मंच) और हिमालय विरासत ट्रस्ट ने राज्य स्थापना दिवस पर काव्य गोष्ठी आयोजित की। मुख्य अतिथि समाजसेवी व अधिवक्ता बलदेव पराशर रहे। उन्होंने का कहा कि श्रेष्ठ साहित्य समाज को नई दिशा देने में सहायक होता है।

देहरादून। राज्य स्थापना दिवस की रजत जयंती पर उत्तराखंड साहित्य सम्मेलन (साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक मंच) और हिमालय विरासत न्यास की ओर से काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में कवि/शायरों ने काव्य का खूब रंग जमाया।

रविवार को 6- प्रीतम रोड डालनवाला में आयोजित काव्य गोष्ठी में मुख्य अतिथि समाजसेवी व अधिवक्ता बलदेव पराशर ने कहा कि उत्तराखंड साहित्य सम्मेलन की ओर से राज्य की रजत जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित काव्य गोष्ठी सार्थक और सराहनीय रही। गोष्ठी में विभिन्न रसों की श्रेष्ठ रचनाओं का पाठ हुआ। साहित्य का यह श्रेष्ठ सृजन राज्य, समाज और साहित्य को नई दिशा देने में सहायक होगा। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में राज्य स्थापना के दिन से लेकर रजत जयंती वर्ष तक विकास के कई काम हुए हैं। राज्य निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर है। उन्होंने प्रदेश वासियों को राज्य स्थापना दिवस की बधाई दी।

इससे पूर्व कार्यक्रम का शुभारंभ मोनिका मंतशा की सरस्वती वंदना के साथ हुआ। कार्यक्रम अध्यक्ष वरिष्ठ शाईरा मीरा नवेली ने पढ़ा कि ‘ये ठौर बड़ा कम बचे, रुके बहाव अब चले, अंजलि भर मोरपंख वैराग्य देकर ही मिले, कृष्ण रहित रहकर भी जो कृष्ण सहित रही सदा, वही पीड़ा हूं मैं मीरा हूं’। वनों के अधिक होते कटान पर शाइरा अंबिका सिंह रूही ने पढ़ा कि ‘सुनो अहले वतन मिलकर सभी फरियाद जंगल की, परिंदों को रुलाती रहती है अब याद जंगल की’। वही, शाइर परमवीर कौशिक ने ‘लुटते हुए तो देखा लोगों को तीरगी में, तन्हा हमीं लुटे हैं भरपूर रौशनी में’ सुनाकर वाहवाही लूटी। कवि/गीतकार वीरेन्द्र डंगवाल “पार्थ” ने राज्य की धीमी विकास की गति पर सवाल उठाते हुए पढ़ा कि ‘सुबह वही है शाम वही है, कृष्ण वही है राम वही है, अपना राज मिला है लेकिन, लखनवी नवाब वही, अपने राज में मायूसी है हिम के नौनिहालों में, राजाओं से पूछो तो क्या किया है इतने सालों मेंI’ इसके साथ ही श्रृंगार पर पार्थ ने पढ़ा कि ‘मैं तराशे जा रहा हूं सपन, तुम भी सांचे में ढलना प्रिए, जीवन के सपाट और ढलानों में हम कदम बन के चलना प्रिए’। वहीं, कवि/गीतकार डॉ विद्यासागर कापड़ी ने ‘बहारें व रौनकें उन गाँवों में कहाँ होंगी, बेड़ियाँ प्यारी बेटियों के पाँवों में जहाँ होंगी’ सुनाकर खूब सराहना पाई।

नीलम पांडेय नील ने पढ़ा कि ‘मेरी आपत्तियों पर, चुप्पियों की मुहर सजा दो प्रिय, जब्त कर लो, हर अभिमान जहां, दरक उठा था, कभी स्वाभिमान मेरा’। कवि जीके पिपिल ने ‘अपमान के ज़ख्मों में ख़ून नहीं अश्क़ बहते हैं, ऐसा हम नहीं कहते अपमानित लोग कहते हैं’, मोनिका मंतशा ने पहाड़ पर अपनी बात कहते हुए कहा कि ‘कैसे कटते हैं ये दिन रात इन पहाड़ों पर, आओ मिलकर के करें बात इन पहाड़ों पर’, तो नवीन आजम ने ‘सर पे ज़ालिम के ताज आज भी है, गिरती मुफ़लिस पे गाज आज भी है, कुछ भी बदला नहीं यहाँ ‘आज़म’, कल था जैसा समाज आज भी है’ और कवि महेंद्र प्रकाशी ने ‘मुफ़लिसों के घर में तो, खाने को दाना भी नहीं है, और तुम कहते हो ये मुद्दा उठाना भी नहीं है” पढ़कर तालियां बटोरी। कवि दीपक अरोड़ा ने ‘जीएसटी इस क़दर मेरी जिंदगी को सता रही है, 100 में आने वाली पुलिस 112 में आ रही है’ सुनाकर खूब वाहवाही लूटी। उत्तराखंड साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष नरेंद्र उनियाल ननु ने लघु कथा का पाठ किया। जबकि, अरविंद शाह ने पढ़ा कि ‘हाये क्या हो गया ज़माने को, भाई का हक़ भि भाई खाने लगे। शिवमोहन सिंह ने दोहों के माध्यम से ‘देवदार पथ देखता, धवल धीर हिमवान, देवभूमि में आइए, स्वागत है श्रीमान’ और ‘देवभूमि फलदायिनी, हिमगिरि अडिग प्रचंड, नदियाँ जीवन दायिनी, श्रेष्ठ उत्तराखंड’ समा बांधा।

इस अवसर पर डॉ नीलम प्रभा वर्मा, हास्य कवि नरेंद्र शर्मा अमन, सुभाष चंद वर्मा, संगीता शाह, सुलोचना परमार, अरविंद साह, विजयश्री वंदिता, पूनम नैथानी आदि ने भी काव्य पाठ किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता मीरा नवेली और संचालन साहित्य सम्मेलन के महामंत्री वीरेंद्र डंगवाल “पार्थ” ने किया। कार्यक्रम में लल्लन सिंह, आशुतोष कुमार, रोहित सिंह, सोनिया आदि मौजूद रहे।

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