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अमित नैथानी ‘मिट्ठू’ की गढ़वाली कविता.. उजड़दी कूड़ी की खैरी

अमित नैथानी ‘मिट्ठू’
ऋषिकेश, उत्तराखंड
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उजड़दी कूड़ी की खैरी
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हे रे परदेशु जन्दरौं कन यखुलि छोड़ी चलग्याँ तुम हमतैं,
बरष बीति गेनी हम जगोलना रैग्याँ तुमतैं।
पौढ़-लिखी बडा अफसर क्या बण्याँ हमतैं त तुम भूली गयां,
सरकण लग गेनी पठली हम भी अब कै कामा का नि रयां।

कन रौनक रैन्दि छै तुम्हरी यूँ गुठ्याररूं मा,
औंदा-जन्दरा भी द्वी घड़ी बैठ जांदा छा,
तुम्हारा चौक डिंड्याल्यूं मा।
द्वी-चार मनखी जू छन उ भी अब हम जने नि देखदन,
तुम त नि छा ईँ कूड़ी पर अब मूसा बिरलों का ओड्यार बणया छन।

गोरुं का मोलन लिप्यां हम कन चमकदा छा,
बार-त्योहार ब्यो-कारज मा हम कन सजये जांदा छा।
अब त कोणा-कोणों बिटि हम मकड़जालौंन घिरेग्याँ,
भगवती-नागर्जा का ब्यारा कीड़ा पोथलौंन भुरेग्या।

क्या पै हमुन इतगा बरषूं तक तुम्हरू सारु बणी,
अफरी सुख सुविधा का खातिर तुमुन हमरी या कुदशा करी।
तुम त मनखी छा तुमतैं खैरी लगन्दरा कई मिलला,
हमरु त कुई नि रै अब पुछ्दरु अफरी खैरी कैमा लगौला।

हमरा खन्द्वार होण से पैली एक टक देखणु ऐजा,
नौना बालों लेकि द्वी घड़ी फिर से रौनक लै जा।
रे मनख्यूं ज्वानी का कुछ दिन अफरा पितरूं का बणया घौर रै जा,
नि रुसौला हम तुमु देखि की बस एक दां हमरी खबरसार कनु ऐजा,

बस एक दां हमरी खबरसार कनु ऐजा …

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सर्वाधिकार सुरक्षित।
प्रकाशित…..16/11/2020
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