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स्वयं के स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज/राष्ट्र के लिए त्याग करना साधना

भगवद चिन्तन … साधना

वस्त्रों का त्याग साधना नहीं हो सकता। लेकिन, किसी वस्त्रहीन को देखकर अपना वस्त्र देकर उसके तन को ढक देना, यह अवश्य साधना है। ऐसे ही भोजन का त्याग भी साधना नहीं है किसी भूखे की भूख मिटाने के लिए भोजन का त्याग यह साधना है।

साधना का अर्थ है स्वयं के स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज के लिए, राष्ट्र के लिए त्याग करना। दूसरों के लिए विष तक पी जाने की भावना के कारण ही तो भगवान शिव महादेव बने। जो स्वयं के लिए जीये वो देव, जो सवके लिए जीये वो महादेव ।

आज का आदमी धर्म को जीने की बजाय खोजने में लगा है। धर्म न तो सुनने का विषय है न वोलने का, सुनते-बोलते धर्ममय हो जाना है। धर्म आवरण नहीं आचरण है। धर्मं चर्चा नहीं चर्या है।

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