समाज में वही जीवन वंदनीय व अनुकरणीय बन सका, जिसने माता-पिता का सम्मान करना सीखा
भगवद् चिंतन … अनुशासन
अनुशासित जीवन सदैव आदर्श जीवन भी होता है। माता-पिता के द्वारा डाँटा गया पुत्र, गुरु के द्वारा डाँटा गया शिष्य व सुनार के द्वारा पीटा गया सोना सदैव आभूषण ही बनते हैं। प्रहार ही तो जीवन में निखार का कारण भी बनते हैं।
पत्थरों का मूर्ति के रुप में तब तक रुपांतरण नहीं हो सकता जब तक कि उन्हें अच्छी तरह से छैनी व हथोड़े के प्रहार से न गुजरना पड़े। हजारों प्रहार ही पत्थर को मूर्ति का आकार प्रदान करते हैं। ऐसे ही अपने से बडों की डाँट ही जीवन को श्रेष्ठता व दिव्यता प्रदान करती है।
समाज के समक्ष सदैव वही जीवन वंदनीय व अनुकरणीय बन सका, जिस जीवन ने अपने बडों का सम्मान करना सीखा। अपने से बड़ों के कटु शब्द जीवन में उन नीम के पत्तों के समान ही हैं, जो बेशक कड़वे होंगे मगर स्वास्थ्य के लिए एक औषधि के रूप में ही कार्य करेंगे अथवा तो जीवन के लिए अति हितकर ही साबित होंगे।