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भगवद चिन्तन: कुशलता पूर्वक किया जाने वाला कर्म ही योग

भगवद चिन्तन … योग

योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कुशलता पूर्वक किया जाने वाला कर्म ही योग है। कर्म की कुशलता का सीधा सा अभिप्राय यह है कि श्रेष्ठ कर्म को श्रेष्ठतम विधि से संपन्न करना। जो श्रेष्ठ कर्म श्रेष्ठ विधि से किये जाते हैं, उसी कर्म को महापुरुषों ने पूजा भी बताया है। क्योंकि हमारे वही श्रेष्ठ कर्म एक दिन उस परम प्रभु से योग का कारण अथवा प्राप्ति का माध्यम भी बनते हैं।

योग किसी कर्म विशेष का नाम तो नहीं है, अपितु साधारण कर्मों को भी विशेष ढंग से अथवा श्रेष्ठ ढंग से करना ही योग है। जिसमें हमारी बुद्धि के साथ साथ हमारे संपूर्ण शरीर का विकास हो, नैतिकता का विकास हो, हमारी आत्मा का विकास हो और संपूर्ण जीवन का विकास हो सके, यही कार्य की कुशलता कहलाती है।

शारीरिक योग हमारे शरीर को और आंतरिक योग हमारी आत्मा को स्वास्थ्य प्रदान करता है, इसलिए तन और मन की स्वस्थता ही योग कहलाती है। श्रेष्ठ कर्मों द्वारा इस जीवन को आनंदमय बनाते हुए नर का नारायण में परिणित हो जाना अथवा नर का नारायण से जुड़ जाना ही वास्तविक अर्थों में योग कहलाता है।

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