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मनुष्य के शब्द नहीं संस्कार बोलते हैं, कुशब्द से निशब्द बेहतर

आज का भगवद् चिंतन
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मनुष्य के शब्द नहीं बोलते अपितु उसका संस्कार बोलता है। शब्द किसी मनुष्य के संस्कारों के मूल्यांकन का सबसे प्रभावी और सटीक आधार होता है।

स्वभाव में विनम्रता, शब्दों में मिठास और कर्म में कर्तव्य निष्ठा ये श्रेष्ठ संस्कारों के परिचायक हैं। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ है कि आपकी परवरिश श्रेष्ठ संस्कारों में हुई है।

मनुष्य जीवन एक दुकान है तो जुबान उस दुकान का ताला है। जुबान रूपी ताला खुलने पर ही मालूम पड़ता है कि इसके अंदर क्या भरा पड़ा है, हीरे रुपी सद्गुण या कोयले रूपी कुसंस्कार..?

माना कि शब्दों के दाँत नहीं होते मगर शब्द जब काटते हैं तो दर्द बहुत देते हैं। कभी-कभी घाव इतने गहरे होते हैं कि जीवन निकल जाता है। लेकिन, शब्दों के घाव नहीं भर पाते हैं।

इसलिए जीवन में जब भी बोला जाए मर्यादा में रहकर ही बोला जाए ताकि किसी दूसरे को आपके संस्कारों के ऊपर प्रश्नचिह्न खड़ा करने का मौका न मिल सके। एक बात और कुशब्द प्रयोग से निशब्द हो जाना कई गुना बेहतर है।

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