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आज हम जो हैं उसमें हमारे कृत कर्म भी होते हैं बराबर के जिम्मेदार…

भगवद् चिंतन

जीवन को पूरी तरह प्रारब्ध के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। हम आज जो हैं जैसे हैं उसमें सारी भूमिका प्रारब्ध की ही नहीं हो सकती है, उसमें हमारे द्वारा कृत कर्म भी बराबर के जिम्मेदार होते हैं।

माना कि हमारा कर्म ही हमारे प्रारब्ध का निर्माण करता है। मगर, बावजूद इसके कर्म और प्रारब्ध में एक सूक्ष्म भेद भी जरूर है।मेहनत के अभाव में फल की इच्छा करना और इच्छा पूर्ति न होने पर प्रारब्ध को दोष देना प्रारब्ध दोष नहीं अपितु मेहनत के अनुपात में फल की प्राप्ति न होना प्रारब्ध दोष जरूर है।

प्रश्न आता है कि सब कुछ प्रारब्ध में लिखा है तो कर्म की क्या आवश्यकता है..? आचार्य चाणक्य कहते हैं कि कर्म फिर भी करने ही चाहिए क्योंकि क्या पता प्रारब्ध में यही लिखा हो कि कर्म करके ही सब प्राप्त होगा।

भगवान श्रीकृष्ण भी अर्जुन को बार-बार यही समझा रहे हैं कि हे अर्जुन सतत शुभ और श्रेष्ठ कर्म करते रहो ताकि तुम्हारा कर्म ही योग बन जाए।जहाँ कर्म ही योग बन जाता है, वहाँ योगेश्वर को भी आते देर नहीं लगती। कर्मशील लोग अपने प्रारब्ध के निर्माता स्वयं होते हैं यही तो गीता और रामायण जैसे ग्रंथ हमें सिखाते हैं। इसलिए कर्म योगी बनो केवल कर्म भोगी नहीं।

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