जिस मनुष्य के जीवन में भक्ति नहीं है, उसे दैत्य ही समझना चाहिए …
भगवद् चिंतन
श्रवण, कीर्तन, स्मरण से लेकर सख्य और आत्मनिवेदन तक जो भी नवधा अथवा नौ प्रकार की भक्ति है, उनमें से एक भी यदि किसी मनुष्य के जीवन में नहीं है तो उस मनुष्य को फिर हिरण्यकशिपु अर्थात् दैत्य ही समझना चाहिए ।
भक्ति जीवन को सुपथ की तरफ अग्रसित करती है। यदि किसी मनुष्य के जीवन में भक्ति नहीं है तो फिर निश्चित समझिए वो कुपथगामी है और जो कुपथ गामी है, वही तो दैत्य प्रवृत्ति का भी है।
सीधे शब्दों में कहें तो वो ये कि भक्ति और भक्त का निरादर करने वाला मनुष्य ही हिरण्यकशिपु है। जिस मनुष्य के जीवन में भक्ति नहीं उस मनुष्य के जीवन में सदाचरण की शक्ति भी कभी हो ही नहीं सकती।
जहाँ सदाचार है, वहाँ सुरत्व और जहाँ दुराचार है, वहीं तो असुरत्व है। भक्ति नर को नारायण स्वरूप बनाने की प्रयोगशाला है। भक्ति जीवन को परिष्कृत करके दुनियाँ के बाजार में उसके मोल को बढ़ाकर अनमोल कर देती है।
जीवन में भक्ति का समावेश और भक्त का सम्मान ही स्व-उत्थान का मूल है।