प्रभु इच्छा में ही अपनी इच्छा समझना, यह भक्ति की श्रेष्ठ स्थिति है …
भगवद् चिंतन
भक्ति विश्वास का मार्ग है अथवा यूं कहें कि भक्ति विश्वास का ही दूसरा नाम है। जीवन में भक्ति होगी तो उस प्रभु के प्रति विश्वास भी होगा। भक्ति जितनी दृढ़ होगी, जीवन में विश्वास भी उतना ही दृढ़ होगा।
जीवन में विश्वास और समर्पण तो बृज वासियों की तरह ही होना चाहिए। इंद्र ने ब्रज में प्रलय मचाने की मंशा से जब मूसलाधार जल वृष्टि करना प्रारम्भ की तो सभी ब्रजवासी पूरे विश्वास के साथ उस वृंदावन विहारी की शरण में जाते हैं और कहने लगते हैं, कि हे कृष्ण! हमारा तो आपके सिवा कोई भी नहीं है।
जब भी हमारे ऊपर कोई विपत्ति आन पड़ी है, तब तब तुमने ही हमें उन बड़ी-बड़ी विपत्तियों से उबारा है। बचाओ तो तुम और डुबाओ तो तुम। हम तुम्हारी शरण में हैं। जो प्रभु की रजा है , हम उसी में राजी हैं।
प्रभु इच्छा में ही अपनी इच्छा समझना यही तो भक्ति की श्रेष्ठ स्थिति भी है। भक्ति जितनी दृढ़ होती जाती है उतना ही जीवन से भय का भी नाश होता जाता है क्योंकि जहाँ विश्वास है, वहाँ भय कैसा..?