युवा कवि बृजपाल रावत कविराज की एक ग़ज़ल.. रुख़्तसर होते रिश्ते ये ज़ुबानी कैसी है
बृजपाल सिंह (कविराज)
देहरादून, उत्तराखंड
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रुख़्तसर होते रिश्ते ये ज़ुबानी कैसी है
हरेक ज़ुबान में बदज़ुबानी कैसी है।
लोग मिलते थे और लग जाते थे गले
आज दूर-दूर से ये एहतरामी कैसी है।
मुझे कोई भी मुख्लिस दिखता नहीं
दुनियाँ में बेफयादा ये इंसानी कैसी है।
कोई हो जो समझता हो इन बातों को
देखो तो सरेआम यहाँ बेमानी कैसी है।
वक्त ने सबको सिखाया है सबक यहां
इंसानों की इंसानों से मेहरबानी कैसी है।
ढूंढते फिरते हो दवा तुम मर्ज़ की बृज
बुढ़ापे में देखो उनकी ये जवानी कैसी है।
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बृजपाल सिंह (कविराज)