चलो एक किस्सा, सुनाता हूँ। क्या है… ग़रीब की दीवाली, बताता हूँ।
चंदेल साहिब
कवि/लेखक
बिलासपुर, हिमाचल
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चलो एक किस्सा,
सुनाता हूँ।
क्या है…
ग़रीब की दीवाली,
बताता हूँ।
स्वाभिमान ग़रीब का,
आँखों में ऐसा देखा।
नंगे बदन शरद रात में,
मिट्टी के दिए बेचते देखा।
सुनो बाबू जी,
अरे वो बाबू जी,
पल-२ कहते देखा।
त्यौहार की ख़ुशी,
दुनिया मना रही थी।
मग़र उसकी आँखों को,
मैंने नम होते देखा।
कुछ दिए खरीद लो,
हर वक़्त करता फ़रियाद।
ए मेरे मालिक,
न बिक सका कोई दिया,
भरपेट खाना,
कैसे मिलेगा आज़।
मैं सब कुछ देख कर,
स्तब्ध खड़ा था।
पर वो बच्चा,
जमीर का पक्का बड़ा था।
मुझसे रहा न गया,
पास जाकर मैं खड़ा हो गया।
बेबाक़ बोला,
बाबू जी,
मैंने कहा बच्चे बोलो।
बाबू जी,
भगवान ने दुनिया बनाई,
सही है।
भगवान ने लोग बनाए,
सही है।
मग़र उसने ये अमीरी,
ये ग़रीबी क्यों बनाई।
क्यों बनाया दुःख सुख,
क्यों ऊंच नीच बनाई।
क्यों किसी के पास,
नहीं दो वक़्त की रोटी।
क्यों खाना नाली में,
कोई बहा रहा।
सुना सब कुछ,
कुछ कह न सका।
मेरे इस अंतर्मन में,
यही प्रश्न कौंधता रहा।
मैंने कहा दिए कैसे दोगे,
कहता सारे के सारे ले लोगे।
मैंने कहा हाँ।
उसकी ख़ुशी का रहा न ठिकाना,
मिल गया हो उसको जैसे कोई बेमोल खजाना।
मैंने जाते-२ पूछा,
क्या तुम करोगे इन पैसों का।
कहता माँ को साल ,
पिता के लिए जूते लूँगा।
बहन के लिए चूड़ी,
भैया को फुलझड़ी दूँगा।
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सच्ची घटना पर आधारित
सभी से निवेदन है इस दिवाली किसी ग़रीब की कुटिया को रोशन जरुर करें।
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सर्वाधिकार सुरक्षित।
प्रकाशित…..14/11/2020
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