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पृथ्वी ही धर्म है और पंच तत्वों से निर्मित प्रत्येक वस्तु सनातन …

शास्त्र कहता है धर्मो रक्षति रक्षिता यानी जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म स्वयं उसकी रक्षा करता है अर्थात हम धर्म से उपजे हैं धर्म हमसे नहीं उपजा।

मयंक सुन्द्रियाल
ग्राम क्वाली, पौड़ी गढ़वाल
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धर्म संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। ध + र् + म = धर्म। ध देवनागरी वर्णमाला 19वां अक्षर और तवर्ग का चौथा व्यंजन है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह दन्त्य, स्पर्श, घोष व महाप्राण ध्वनि है। संस्कृत (धातु) धा + ड विशेषण- धारण करने वाला होता है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है।

पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है। धर्म माननीय कर्मों पर आधारित नहीं है, धर्म स्वयं में उत्पन्न में और स्वयं का पालन करने वाली की रक्षा करने वाला है। शास्त्र कहता है धर्मो रक्षति रक्षिता यानी जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म स्वयं उसकी रक्षा करता है अर्थात हम धर्म से उपजे हैं धर्म हमसे नहीं उपजा।

गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में जब धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि कुरुक्षेत्र में युद्ध भूमि में क्या स्थिति है तो वह युद्ध भूमि को धर्म क्षेत्र कहकर संबोधित करते हैं। क्योंकि, उस क्षेत्र ने युद्ध के परिकर को धारण किया है। युद्ध के परिकर ने उस भूमि को धारण नहीं किया। धर्म मानवीय सभ्यता से उत्पन्न नहीं है, अब तो मानवीय सभ्यता धर्म से उत्पन्न है। जीवन की अनुशासन पूर्ण सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय वसुधैव कुटुंबकम की उन्नत शैली का अनुसरण धर्म अनुसरण है, हम इसे उत्पन्न नहीं कर सकते है। अब तो यह हमें जन्म देता है। शारीरिक तौर पर नहीं मानसिक तौर पर मन के अंतःकरण में उत्पन्न होने वाली वह समस्त भावनात्मक रूप से दिव्य शक्तियों का पूंज ही धर्म है

यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।

धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) व आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है।

वह आकाश तत्व की तरह है, वह स्वयं में परमात्मा है, जिसका कभी समापन नहीं होता। गीता में भगवान ने जब अर्जुन को उपदेश दिया और दूसरे अध्याय में जब भगवान अर्जुन से कहते हैं कि

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥2.23॥

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता। इस प्रकार से भगवान ने आत्मा का प्रारूप बताते हुए अर्जुन को चार तत्वों का उपदेश दिया। साथ ही पांचवा तत्व आकाश को ही आत्मा बताया है, ठीक इसी प्रकार मनु ने भी धर्म के 10 लक्षण बताए हैं।

मनु ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं-

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्॥

धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किए गए अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (आंतरिक व बहारी शुचिता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन व कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना)। ये दस धर्म के लक्षण हैं।

अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि जिसने इस संपूर्ण धरा पर मनुष्य के अस्तित्व को धारण किया है, वह धर्म है। भगवान स्वयं गीता में कहते हैं –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्..

अतः सामान्यतया अर्थ देखा जाए तो धर्म की हानि होने पर और अधर्म की वृद्धि होने पर भगवान उसका नाश करके पुनः सृष्टि का सृजन करते हैं। लेकिन, यही अर्थ यदि धर्म के आलंबन से देखा जाए तो भगवान स्वयं कह रहे हैं, जब-जब धर्म की हानि होगी, अतः धर्म को धारण करने वाली यह पृथ्वी जब-जब इसका नाश होगा, तब-तब भगवान इसका स्वयं उद्धार करेंगे। जैसे भगवान ने वराह अवतार में किया। अतः पृथ्वी ही धर्म है और पंच तत्वों से निर्मित प्रत्येक वस्तु सनातन।

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