धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’… कोरोना की वापसी हो गई है # चुनावी_रैली
धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’
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लच्छौ, वो सरपंच जी कह रहे थे कल एक और चुनावी रैली में जाना है। 300 रूपये मिलेंगे 300 और खीर पुड़ी अलग
लच्छौ ने पानी का मटका नीचे रखते हुए घूरते हुए देखा और तुनक कर कहा- गौरी के बाबा तुम्हारा भेजा कहां गया है, कौनहू भांग तम्बाकू खाए हो का? बाहर कितनी बीमारी फैली है, सरकार रोज टी वी-रेडियो और अखबार की खबरों में कह रही है, घर से बाहर न जाएं, भीड़ में न जाएं, बीमारी से बचें।
लच्छौ की बात सुनकर बुद्धिया तमतमाकर बोला-रहने दो लच्छौ जो सरकार टीवी, रेडियो, अखबारों पर घर से बाहर न निकलने का प्रचार कर रही है, वह रैली में आने के लिए 300 रूपये और खीर पुड़ी भी बंटवा रही है। हाथी के खाने दांत अलग और दिखाने के दांत अलग वो कहावत नहीं सुनी हो का? और फिर मैं अकेला थोडे ही जा रहा हूं वहां लाखों लोग होंगे लाखों और फिर ऐसा मौका पांच साल में एक बार आता है, जब नेता लोग हम जैसे गरीबों को पूछते हैं।
फिर अपने लहजे को नरम करते हुए बोला- देख पगली कुछ नहीं होगा मुझे और सोच 300 रूपए मिलेंगे , लौटते वक्त घर के लिए चीनी , नमक , तैल , उरद की दाल दो तीन सेर चावल लेता आऊंगा और हां अगर पैसे बचे तो तेरे लिए सिन्दूर की डिबिया भी लेता आऊंगा तेरे पास सिन्दूर खत्म होने वाला है ।
लच्छौ ने सिर झुकाकर शांत भाव से कहा-मुझे नहीं चाहिए सिन्दूर की डिबिया तुम्हें कुछ हो गया तो…. अब वो कैसे समझाए कि नारी का असली सिन्दूर तो उसका सुहाग होता है। बुद्धिया ने कहा-तुम बहुत सोचती हो पगली, आजकल बीमारी के चलते ध्याड़ी मजूरी तो पहले से ही ठप्प है, दो-चार दिन चुनावी रैलियों में गले में गमछा डाल कर जाना है, बस कुछ दिन की गुजर हो जाएगी।
अन्ततः इंसान का विवेक आवश्यकताओं के आगे नतमस्तक हो ही जाता है। गरीबी सपनों के आगे आत्मसमर्पण कर लेती है। वही लच्छौ को भी करना पड़ा। बुद्धिया भी अगले दिन सरपंच के बुलावे पर रैली में शामिल हुआ शाम को लौटते वक्त घर के लिए जरूरी सामान, सिन्दूर की डिबिया लेकर घर में प्रवेश करता है।
लच्छौ ने हाथ-मुंह धोने के लिए गरम पानी दिया, हाथ-पैर धोकर बुद्धिया लच्छौ के समीप बैठकर सिन्दूर की डिबिया देते हुए रैली में दिन भर की बातें बताने लगा। अगले दिन सुबह बुद्धिया की देह में ताप होने लगा, लच्छौ ने काढ़ा बनाकर दिया मगर कोई लाभ नहीं। शाम होते-होते ज्वर ने विकराल रूप धारण कर लिया जैसे मंहगाई कर रही है। लच्छौ ने वैध जी से कहलवा भेजा, वैध जी दवा भेजी मगर ज्वर अंगद के पैर की तरह टस से मस नहीं हुआ और तीसरे दिन वही हुआ जिसकी आशंका एक आदर्श पत्नी स्वप्न में भी नहीं कर सकती। बीमारी से बुद्धिया की जीवन लीला समाप्त हो गई।
गांव वाले तरह-तरह की बातें करने लगे कि बुद्धिया छुआछूत वाली बीमारी (कोरोना) से मरा है सो अर्थी को कांधा देने वाले लोग भी बमुश्किल मिलें। अन्तिम संस्कार के बाद लच्छौ पर तो मानो वज्रपात हो गया अब वो और उसकी चार बरस की बिटिया गौरी रह गए।
चुनाव सम्पन्न हो गया। नेताओं ने शपथ ग्रहण कर सरकार बना ली। सरपंच को भी चुनावी रैलियों में दलाली करने के एवज में शहर में एक पैट्रोल पंप उपहार के रूप में मिल गया। लेकिन, गरीब लच्छौ जिसके पास सिन्दूर की डिबिया तो थी पर वह अपना बेशकीमती सुहाग खो चुकी थी।