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युवा शाइर धर्मेन्द्र उनियाल धर्मी की एक गढ़वाली रचना… तीन मई … ऐपडि बई

धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’
देहरादून, उत्तराखंड
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तीन मई … ऐपडि बई
घर मा रई, कखी न जई,
खई पैई अर सैंयू रई
पर तू भैर कतै न जई।

किताब पढ़ी, गीत सुणी,
या त ऊन की स्वेटर बुणी
चौकू चूल्हू तू, करदू रई
झाडू पोछा म वक्त बितई!!
पर तू भैर कतै न जई।

रिश्तेदारों तैं फोन मिलई,
दोस्त यारों तैं याद दिलई।
सेवा सौंली सबू तै भेजदू रै,
राजी खुशी त्यूं की पुछणू रई
पर तू भैर कतै न जई।

गरीब छैं त गरीब ही रई,
झोली झंगौरू छंछैणू खई।
लोग त्वै मा दैण क आला
तू कैम मागण न जई।
पर तू भैर कतै न जई।

अंधियारा का बाद उजालू आळू
नयू सूरज तब जगमगाळ।
बंच्या रौला त मेहनत करला
ई बात अपणा बच्चों बिंगई।
पर तू भैर कतै न जई!!

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