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कवि धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’ की एक रचना… हमको चाहिए भू-कानून भू-कानून

धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’
अल्मोड़ा, उत्तराखंड
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भू-कानून उत्तराखण्ड
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कोदा की रोटी में, पिसा हुआ लूण,
हमको चाहिए भू-कानून भू-कानून।

कोई हमारे जंगलों को काटे,
कोई ज़मीन को टुकड़ों में बांटे,
नदियों पर यहां बांध बनाकर,
बिजली बेचकर, नोट कमाते।

हमको नसीब नहीं रोटी दो जून,
हमको चाहिए भू-कानून भू-कानून।

कब तक अपनी दशा पे रोएं,
अपनी जंगल जमीन को खोऐं
बहुत सह लियाअब न सहेंगे ,
चीख़ चीख़कर हम ये कहेंगे।

उबल रहा है अब हमारा भी ख़ून,
हमको चाहिए भू-कानून भू-कानून।

सत्ता वाले साहब सुनिए,
सही ग़लत में से चुनिए,
अपनी मिट्टी की रक्षा कीजिए
भू कानून लागू कर दीजिए।

छोड़ कर सारी उलझन उधेड़बुन,
हमको चाहिए भू-कानून भू-कानून।

नहीं तो आने वाली पीढ़ी रोएंगी,
उजड़ी छत की सीढ़ी रोएंगी,
ये कटे हुए सब पहाड़ रोएंगे,
बन्द खिड़की बन्द किवाड़ रोएंगे।

विनती कर रहे हैं आम और जामुन।
हमको चाहिए भू-कानून भू-कानून।।

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