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युवा कवि धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’ की रचना… सब के प्राण बचाती ख़ाकी

धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’
देहरादून, उत्तराखंड

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सबके प्राण बचाती ख़ाकी,
सबके काम है आती ख़ाकी।

दंगा फसाद या मेला ठेला,
चुनावी रैली झूलूस का रैला।
ईद -मुहर्रम होली – दशहरा,
सबकुछ बस खाकी ने झेला।

गुनाह से पर्दा हटाती ख़ाकी।
सबके काम है आती ख़ाकी।

बारह महीने सातों वार,
थामे रहते फ़र्ज़ की दीवार।
हमको देकर खुशियां सारी,
अपना न कोई तीज़ त्यौहार।

सबका मनोबल बढ़ाती खाकी,
सबके काम है आती ख़ाकी।

नेताओं की किच किच भी झेले
जनता से झिक झिक भी झेले।
सड़क चौराहों पर भूखी-प्यासी
ये बरखा की टिप टिप भी झेले।

समाज से अपराध मिटाती ख़ाकी।
सबके काम है आती ख़ाकी।

अपराधी कांपे नाम से इसके,
बहुत लाभ है काम से इसके।
अन्याय की है जानी दुश्मन,
राष्ट्र खुश है परिणाम से इसके।

राष्ट्र को खुशहाल बनाती ख़ाकी।
सबके काम है आती ख़ाकी।

चाहे सूखा हो और चाहे बाढ़,
सावन की बरखा या गर्म अषाढ़
कोई मौसम कोई ऋतु न देखे,
झगड़ा फसाद और न देखे‌ राढ।

भटके हुए को घर पहुंचाती ख़ाकी
सबके काम है आती ख़ाकी।

ख़ाकी के सम्मान में दिल से समर्पित।

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