डॉ अलका अरोड़ा की एक रचना, मेरी वफा का सिला यही वो मुझपे मरता है
डॉ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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अफसाने तेरे नाम के
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मेरी वफा का सिला यही वो मुझपे मरता है
मिलता है जब भी जख्म हरा जरूर करताहै
जाने कहां से सीखा जीने का यह सलीका
कत्ल मेरा काँटे से नहीं वो फूल से करता है।
वक्त को रखता हमेशा अपनी निगेहबानी में
वो जिंदगी को बड़े गुरूर से जीता है
चढ़ गया रंग कुछ बहती हवा का उसपे भी
मुझे छोड़ हर शबनब हर हूर पे मरता है।
मैंने भी हटा लिए अपने कदम कुछ यूँ भी
आज अभी, इसी समय, समझौता कोई नहीं
चाहत में होके बर्बाद वो आसमां को तकता है बेबुनियाद सवालात नामालूम क्या सोच के करता है।
कभी जो हो मेहरबान किस्मत के सितारे
झोली में हीरे मोती वो गिन गिन के छुपाले
मुझको तलाशता हर पत्थर हर बुत में वो
कभी वक्त था, कहा, मुझे दिल में बसाले
रहे सलामत यादो तू किस्सों की पनाह में
उम्र गुजार डाली इन्ही उलझन उलाहनों में
यंकीन करने की कोई वजह थी भी कहाँ
तूने पल भी ना लगाया मेरा वजूद मिटाने में
अफसाने तेरे नाम के बहकने लगे हैं
गुलाब और कमल भी महकने लगे हैं
ये और बात है आँसू नहीं थमते हमसे
कश्ति समन्दर में हमने अपनी खुद ही डुबाई है।