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डॉ अलका अरोड़ा की एक कविता…. मैं करोना को हराकर बाहर आई हूँ

डॉ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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भोर की नव बेला
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मैं करोना को हराकर बाहर आई हूँ
खुद की बहादुरी पर थोड़ा इतराई हूँ
मालूम था सफर बहुत कठिन है
फिर भी हिम्मत खूब मन में जुटाई है।

खूब पिया पानी खूब भाप भी ली
खूब प्राणायाम की लगाई झड़ी
लम्बी साँसे छत पर जाकर खींची
प्रभु स्तुति में पल प्रतिपल लीन हुई।

हाँ विचलित रही परिचितो की मृत्यु से
देश के कौने-कौने की अनहोनी खबरों से
लोगों के जीवन की लड़ाई के मंजर से
अचानक आई संसाधनों की कमी से।

बाहर तो आना ही था समस्याओं से
याद किया और विचार होसलों से लड़ने वाले
नर्स डाक्टर्स वार्डवॉयज एंबूलेंस आटो डाइवर्स
समाजसेवी सर्घषरत लोगों को।

देखा सरकारी, गैर सरकारी लोगों को
जुझारू बनकर व्यवस्था सम्भालते हुए
लाशों के बाजार में आँसू की बहती गंगा देखी
सड़कों से गलियारों तक भयावह तम देखा।

कलम को सिपाही बनाकर कमान थामे रही
हर टूटे हुऐ मन को दिया सहारा, हौंसला
लिखी मुस्कुराहटें कंपकंपाती कलम से
लगातार बाँटती रही सकारात्मक ऊर्जा।

दिल को मिला सुकून मिला सहारा खूब
दुख जो आया उसे जाना होगा जरूर
ये जुरूरी बिल्कुल नहीं रोया ही जाए
हंसते मुस्काते भी क्यूं न ये दिन काटे जाये।

हिम्मत बड़ी चीज है बड़ों की है सीख भी
मन चंगा तो तन चंगा सुना था कभी
एक-एक ग्यारह बने जरूरत आज की है
फतह हासिल करने का मूल मंत्र भी यही।

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