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डॉ अलका अरोड़ा की एक रचना … पायल

डॉ अलका अरोड़ा
देहरादून, उत्तराखंड


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पायल

कहीं सीमा का बंधन देखो
कहीं रात अलबेली है
पैरों की पायल है मेरी
या जंजीर की बेडी है।

रुके रुके कदमों से देखो
अठखेली ये करती है
रुनझुन रुनझुन करते करते
सांझ सलोनी कटती है।

छम छम करता बचपन बीता
झनक झनक करते यौवन
छनक छनक सी बीती उमरिया
खनक खनक बरसे बादल।

एक पायल बाबुल घर देखी
एक पायल मिली पिया घर
एक पहनाई नन्ही गुड़िया को
खेली जो फिर मेरे आंगन।

ताल स्वर पर गूंज उठे जो
कोयल जैसी तान सुनाये
धनक धनक कर बजती हैं जो
शांत हृदय को पल पल हर्षाये।

मन मयूर सा बन जाता है
उड़ उड़ गगन तक जाता है
पायल मेरी पाँव में देखो
सीमा मेरी बतलाता है

बाबुल ने तो शौक में डाली
पिया जी ने अलंकार सजाया
दुनिया ने बंधन है माना
मैने मौन धर कर स्वीकारा।

पर पायल के घुंघरू मुझको
बहुत अधिक भा जाते है
भीग बारिश की बूदों में
अपना मुझे बनाते हैं।

मेरी सदा रही बेडियां
बिटिया की न बनने दूंगी
गगन छूने की असीम उमगें
ये गिरहे धीरे धीरे खोलूंगी।

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