डॉ अलका अरोड़ा की एक रचना, बारिशें मेरे आँगन से होकर जब भी गुजरी
डाॅ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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बारिशे मेरे आँगन से होकर जब भी गुजरी
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तेरे शहर में आज बेसबब आई हूँ
साथ मुकद्दर के कुछ लम्हे लाई हूँ
मुस्कुराना मेरी आदत है, तो हो
आँसू तेरी आँख से भी चुराने आई हूँ
वो जो करते रहे बातें किरदार की
उल्फत की इनकार की इकरार की
कैसे कह दूँ कि मैं वफा नहीं समझी
मुहब्बत मैं भी मगर एक बेवफा यार की
तुमने जब भी उठाई उगलियाँ मेरी तरफ
नजर तुम्हारी भी गई एक दफा खुद पर
मैं तो फिर भी ही पाक दामन जमाने में
तुम तो चेहरा दिखा ना सके खुदा को भी
तुमसे नाराज होना मेरी फितरत न थी
तुमपे एतबार करना मेरी आदत ही रही
कैसे मुड़ कर गये बेरुखी से इतराते हुऐ
एकदफा गैर समझ कर भी उल्फत न की
अहसान करना तुमने कभी सीखा नहीं
इनायत समझने की जुरूरत ना रही
मेरी उदासी मेरे आँसू तुम्हें दिखते कैसे
गैर की मुहब्बत आँख से तेरी रुखसत न हुई
खिलखिलाने से ही लफ़्ज भीगे थे सभी
बारिशें मेरे आँगन से होकर जब भी गुजरी
दिल को सुकूँ नजरों को राहत हुई
एक तेरे जाने के बाद चाँद देखा जो कभी
आसमाँ से ही पूछ लेते पता मेरी जानिब
जमीं की प्यास का लगता अंदाजा तुम्हें भी
मौसम तो चंद रोज ठहरकर गुजरते ही हैं
बावस्ता हो जाते समन्दर की गहराई से भी
दिलों में अपने क्या क्या लिये फिरते हो
इतने मासूम न दिखो यहाँ वहाँ गिरते क्यूं हो
जज़्बात गैर जरूरी हैं तो लिखते क्यूं हो
नजरे कहीं ओर, दिल में हमें रखते क्यूं हो
चाँद को गुमाँ खूबसूरती का हुआ ही नहीं
सितारों ने भी कभी गुमाँ किया ही नहीं
हो सकते हैं ख्वाब किसी और आंखों का
कदर हमारी इतनी भी तू समझा ही नहीं