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डॉ अलका अरोड़ा की एक रचना.. चंद बुलबुले जो देखते हो पानी में तुम

डाॅ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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चंद बुलबुले जो देखते हो पानी में तुम
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दो घड़ी रुककर घाव सहलाने लगे
हम यूँ भी दर्द अपना भुलाने लगे
तुम जो राहों में मेरी बिछाते हो शूल
दामन फूलों से तुम्हारा महकाने लगे।

किस्मत में था इन्तेजार वही मैं करती रही
आने का सबब था तैयार उसी से डरती रही
तुम तो मशगूल रहे औरों की बस्ती में
हम यहीं रुक कर हर सफर तय करते रहे।

था मुक्कदर में बिछुड़ना तो हम मिले भी नहीं
किसी और की दस्तक के लिए रुके भी नहीं
जहाँ चलकर हवाएं भी रुख मोड़ लेती थी
आज उसी राह पे रुककर तुने पुकारा भी नहीं।

कब से रहे तेरे दीदार के प्यासे हम
इनकार के रहे कभी इकरार के हम
झूठ फरेब धोखा बहुत खाया तेरे लिए
सबकुछ लुटाकर लौटे तेरी गलियों से हम।

तेरे पीछे ठोकरों का हिसाब ना रखा कोई
हमने उस मुकाम का तसव्वुर भी था किया
तू लौटकर जहाँ से ना आया भी कभी
ऐसे वीरानों में हमने आवाज का पीछा किया।

सागर नदिया रेत समन्दर गिरती उठती लहरें
बिन माझी की कश्ती निकली तूफाँ साथ लेकर
ऐसे तो किरदार हमारा भी था चाँदनी जैसा
सच छुपा ना पाया सामने आईना दिखाकर।

बहते गये निर्झर नदी की रवानी के संग भी
रुकती गिरती मीनारों के अजब देखे रंग भी
मुहब्बत तो बदनाम सदियों से रही जमाने में
दिल लगाने की अदा ने बर्बाद किया यूँ भी।

ना रोको पुकार कर आज इस मकाम से
ढलते सूरज सी शमाँ के टूटे सपने लिए
चंद बुलबुले जो देखते हो पानी में तुम
कल तक रहेगा ना नामोनिशां अब मेरा भी।

हालात कुछ यूँ भी बदल कर देखे हमने
उड़ते परिदों को जमी पर पाला हमने
बंद करके रोशनदान अशियाने के सभी
कैद हवा को किया मुठ्ठी में यू भी हमने।

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