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डॉ अलका अरोड़ा की एक रचना… मेरे महबूब में सब था बस वफा ना थी

डॉ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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ये मेरा ही जुनूँ था
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बेचैनी थी, तड़प थी, बेकरारी थी,
मेरे महबूब में सब था बस वफा ना थी।

मैं तरसती ही रह गई एक नजर की खातिर
जाने वाले में सब था बस मोहब्बत ना थी।

कभी वादे ना किए, कभी कसमें ना खाई
वो उतारता भी कैसे, कुछ उधारी न थी।

ख्वाब छूटे गयी नींदें आराम पलभर ना था
दिल ऐ बीमार को दवा की जरूरत ना थी।

बेवफा वो,मिला ही नहीं, ये कहूं कैसे
दिले ज़हन से एक पल कभी गया ही नहीं।

फूल खुश्बू चमन बहारें और गुलिस्ताँ
बात सब हैं मगर वो किताबे ना थी।

ये मेरा ही जुनूँ था, थी मेरी ही तमन्नाऐं
वो तौलता भी कैसे, उसे खुदा की तलाश थी।

दिले सुकूँ की बात थी, बात किस्मत की थी
था सजदा मगर, इबादत की इंतेहाँ ना थी।।

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