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डॉ बसंती मठपाल की केदारनाथ आपदा के समय रचित रचना.. पहाड़ों पर सुनामी

डॉ बसंती मठपाल
देहरादून, उत्तराखंड
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पहाड़ों पर सुनामी
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घोर वर्षण शोर चारों ओर बस पानी ही पानी
पर पहाड़ों पर कभी क्या सुनी थी ऐसी सुनामी।

उस दिन सागर से गरज उठे थे वे शांत पहाड़
उस दिन बादल से बौरा उठे थे वे अचल पहाड़
उस दिन बिजली से चमक उठे थे वे श्यामल पहाड़
थरथरायी धरा सारी,सुनप्रकृति की क्रुद्ध दहाड़
सुने थे बादल गरजते, कौंधती चपला की बानी
पर पहाड़ों पर कभी ना सुनी थी ऐसी सुनामी।

जाने कब से सोये थे, शिव शांत निर्विकार
अचानक नींद टूटी चक्षु खोले, देखा वह कार्य व्यापार
पावन तीर्थ धरा को दूषित करता भ्रष्ट आचार
युगों से शांत तपस्वी की दी सुनायी क्रुद्ध हुंकार
शिव-शांत, प्रकृति-दलित, दूषित-धरा की सुनते कहानी
पर पहाड़ों पर कभी ना सुनी थी ऐसी सुनामी।

क्रोधित तब शिव, गूँज उठा था उनका क्रूर अट्टहास
तांडव-नर्तन से उथल -पुथल ,नष्ट-भ्रष्ट सब हाट -बाट
कोहराम मचा था चहुँ ओर,मचा हुआ था हाहाकार
हर ओर क्रंदन था मचा,था रुदन और चीत्कार
क्रोध शिव का ,नृत्य तांडव,जब गयी माँ सती रानी।
पर पहाड़ों पर कभी क्या सुनी थी ऐसी सुनामी।

ईंट पत्थर, माँट गारा हर तरफ़ पानी ही पानी
बह गया सब जल प्रलय में बच ना पाया कोई प्राणी
अपना सब कुछ गँवा कर बस बचे कुछ महादानी
मृत शवों को लूटती देखी गयी वहाँ नादानी।
कितने ही मर गये वहाँ पर एक मौत बेनामी
क्या पहाड़ों पर कभी भी सुनी थी ऐसी सुनामी।

अरे मानव! विकास का कैसा खड़ा किया ढाँचा
अपना ही स्वार्थ साधा ,क़ुदरत का मिज़ाज ना बाँचा
जाँचते रहे बही खाते,प्रकृति लिखे को ना जाँचा
झूठ सारा बह गया, बस जो बचा था वही साँचा
बह गये सब हानि लाभ, झूठ सच, ज्ञानी विज्ञानी।
पर हिमालय पर सुनी थी, क्या कभी ऐसी सुनामी
इन पहाड़ों पर कभी ना ,सुनी थी ऐसी सुनामी।

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