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डॉ कुसुम रानी नैथानी की एक कहानी… विश्वास की कीमत

डॉ कुसुम रानी नैथानी
देहरादून, उत्तराखंड
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रविवार का दिन था। हरिकिशन दास जी सुबह मन्दिर से घर लौट रहे थे। रास्ते में उनके कानों में ये शब्द पड़े-
‘क्या आप बता सकते हैं श्री हरिकिशन दास कहाँ रहते हैं ?’
किसी के मुंह से अपना नाम सुनकर उन्होंने मुड़कर देखा, सामने एक स्मार्ट सा अधेड़ आदमी फल वाले की दुकान पर खड़ा होकर उससे उनका पता पूछ रहा था। वे बहुत सरल स्वभाव के इंसान थे और सबसे बड़ी आत्मीयता से मिलते थे। सभी दुकानदार और खोमचे वाले उन्हे भली-भांति पहचानते थे। फलवाले ने उनकी ओर इशारा किया और बोला-
देखिये वो सामने वाले बुजुर्ग ही हरिकिशन दास हैं उनका घर अगली गली में है। फलवाले से परिचय पाकर वह आदमी तेज कदमों में चलता हुआ उन तक पहुँचने का प्रयास करने लगा। यह जानकर कि कोई उनके बारे में पूछ रहा है, हरिकिशन जी के कदम धीमे हो गये। जल्दी ही वह उन तक पहुँच गया। सामने आकर उसने पूरी श्रद्धा से झुककर उनके चरण छू लिए।

हरिकिशन जी बोले-
‘सदा सुखी रहो।’
उनकी आँखें बता रही थी कि वे आगन्तुक को पहचान नहीं पाये थे। उनकी परेशानी को दूर करते हुए वह बोला-‘आप नरेश के पिता हैं ना।’
‘जी’
‘मेरा नाम दीपक है। नरेश मुझे चाचा कहता है।’
‘मैं अब भी तुम्हें नहीं पहचान सका। बुढ़ापे के कारण नजर के साथ याददाश्त भी कमजोर हो गयी है बेटा।’
‘माफ कीजियेगा। आपको देखकर मुझे लगा जैसे मुझे सगा बड़ा भाई मिल गया। इसी कारण मैं अपना सही परिचय न दे सका। असल में आपका और मेरा कोई सीधा परिचय है भी नहीं। नरेश और मेरा भतीजा सुभाष दोनों एक साथ अफ्रीका में रहते हैं।’ दीपक बोला।
‘तो आप सुभाष के चाचा हैं। बड़ी खुशी हुई आप से मिलकर। चलिये घर चलिये। मेरा घर यहाँ से थोड़ी दूरी पर है।’
‘ये तो मेरा सौभाग्य है कि आप मुझे यहीं सड़क पर मिल गये। ‘दीपक और हरिकिशन जी जल्दी ही घर पहुँच गये। हरिकिशन जी ने बाहर से ही आवाज लगाई-
‘मीरा देखो तो सुभाष के चाचा आये है।’
सुभाष का नाम घरवालों के लिए नया नहीं था। सभी उसे नाम से पहचानते थे। नरेश और सुभाष दोनों एक साथ ही सालभर पहले अफ्रीका गये थे। वहाँ पर वे दोनों रुम पार्टनर थे। अक्सर फोन पर नरेश, सुभाष का जिक्र करता।

हरिकिशन दास जी की पत्नी तुरन्त आंगन में आ गयी। दीपक ने झुककर उनके पैर भी छू लिए। मीरा ने उन्हें ढेर सारे आशीष दे डाले। तभी पानी लेकर मालती आ गयी। उसका परिचय कराते हुए मीरा बोली-
‘ये नरेश की पत्नी और हमारी बहू मालती है।’ मालती ने पानी का गिलास उन्हें थमाकर उनका अभिवादन किया व पूछा-
‘क्या आप आज ही आये हैं?’
‘हाँ मैं बम्बई से अभी आया हूँ। सुभाष को मैंने बचपन से पाला-पोसा है। वह तो काम की तलाश में हजारों मील दूर चला गया और मैं भारत में अकेला रह गया।’
‘आपके परिवार में और भी तो लोग होंगे?’ मीरा ने पूछा।
‘नहीं भाभी जी, सुभाष के कारण मैंने शादी ही नहीं की। मुझे लगा शादी करके मैं इस मासूम के साथ न्याय नहीं कर सकूंगा।’
‘सुभाष के माता-पिता नहीं हैं क्या?’
‘वे तो वर्षों पहले चल बसे थे। इसकी सारी जिम्मेदारी उन्होंने मेरे ऊपर डाल दी थी।’ दीपक भावुक होकर बोले। माहौल गंभीर होता देखकर हरिकिशन जी बात बदल कर बोले-
‘अक्सर फोन पर नरेश और सुभाष से बातें होती रहती हैं। ताज्जुब है उन्होंने आप का जिक्र कभी नहीं किया।’

‘मैंने ही सुभाष को मना कर रखा है कि वह मेरे बारे में कभी किसी से कुछ न कहें। उसे तो पता भी नहीं है मैं यहाँ आया हूँ।’
‘भला ये क्यों?’
‘मैं उसे दुनिया के सामने बेचारा नहीं बनाना चाहता। उसे अनाथ समझ कर सब उससे सहानुभूति जतायेंगे। दुनिया वाले उसे अनाथ समझेंगे और मुझे उसका गाडफादर। मैं त्याग की मूर्ति के रूप में नहीं जीना चाहता।’
‘सच में आप की तरह आप के विचार भी बड़े नेक हैं।’ हरिकिशन जी बोले।

बातों का सिलसिला जो चला तो घंटो बातों में ही बीत गये। चंद घंटों में दीपक हरिकिशन जी के परिवार में ऐसे घुलमिल गये जैसे बरसों से एक दूसरे को जानते हो। शाम होने पर मालती बोली-
‘अंकल, अब हम आप को यहाँ से एक हफ्ते से पहले जाने नहीं देंगे।’
‘ऐसा मत करना बेटी। मैं अब चलता हूँ।’
‘कहाँ?“’
‘होटल में, वहाँ मेरा सामान रखा है। मैं तो यहाँ बस तुम लोगों से मिलने चला आया था।’
‘हमारे होते आप होटल में कैसे रह सकते हैं? तुरन्त वहाँ से अपना सामान ले आइये आप यहीं रहेंगे हमारे साथ हमारे घर में।’मीरा आज्ञा देकर बोली।
‘नहीं भाभी जी, होटल यहाँ से बहुत दूर है, मैं जाने से पहले आपसे मिलने जरुर आऊँगा, अभी मुझे इजाजत दीजिये।’
‘आप यहाँ कितने दिन रुकेंगे?’
‘मुझे यहाँ कुछ जरूरी काम निबटाने हैं, कम से कम तीन दिन तो लग ही जायेंगे।’
‘तो कल आप सामान लेकर यहाँ आ जाइये। आज आप थके होंगे इसलिए हमने आपको छूट दे दी है।’ हरिकिशन जी बोले।
‘भला बडे़ भाई की बात मैं कैसे टाल सकता हूँ? कल काम निबटाकर आऊँगा।’ कहकर दीपक ने उनसे विदा ली। नरेश के परिवार से मिलकर दीपक बहुत प्रभावित हुए थे। हरिकिशन, मीरा व मालती भी दीपक के जाने के बाद बड़ी देर तक उनकी ही बातें करते रहे।

‘दीपक जैसे सज्जन व्यक्ति आज के जमाने में ढूढे नहीं मिलते। कितना ख्याल रखते हैं सुभाष का। मीरा बोली।
‘सच में सुभाष भाग्यशाली है। माँ-बाप को खोकर उसे वे दोनों चाचा के रुप में मिल गये। जीवन सुधार दिया इन्होंने सुभाष का।’
‘चलो दो दिन और उनसे ढेर सारी बातें जानने को मिलेंगी। बड़े जिंदादिल इंसान हैं वे।’ कहकर हरिकिशन दास जी वहाँ से उठकर अपने कमरे में आ गये।
अगले दिन हरिकिशन जी सुबह से दीपक का इंतजार कर रहे थे पर वे काफी देर से आये।
‘माफ कीजियेगा भाईसाहब, आने में देर हो गयी। कुछ जरुरी काम निबटाने थे।’
‘पहले वह काम जरूरी है जिसके सिलसिले में आप यहाँ आये हैं।’
‘आप ने अच्छा याद दिलाया। आपके पास आने का मुख्य कारण बताना तो मैं भूल ही गया।’ बैग से एक कार्ड निकालते हुए दीपक बोले।
‘ये किसकी शादी का कार्ड है?’ कार्ड देखकर ही हरिकिशन जी बोले।
‘इस उम्र में अब मेरी शादी तो हो नहीं सकती। लिहाजा ले-देकर मेरा तो एक भतीजा ही है सुभाष, उसी की शादी का कार्ड है।’
‘क्या? सुभाष की शादी है। खुशखबरी आपने बड़ी देर से सुनाई।’
‘दरअसल मैं सुभाष के कहने पर ही यहाँ आया था। उसने विशेष जोर देकर कहा था कि आप के पास कार्ड लेकर मैं खुद जाऊँ।’
‘पर नरेश ने इसके बारे में कुछ नहीं बताया।’ मीरा बोली।
‘शनिवार को जब नरेश का फोन आएगा तब सब पता चल जायेगा।’
‘आपको पता है हमारा बेटा हर शनिवार को हमसे बात करता है।’
‘मेरे ही सामने उसने कई बार आप लोगों से बात की है।’
‘आप अफ्रीका भी हो आये?’
‘हाँ, मैं एक ट्रेवलिंग एजेन्ट हूँ। बड़े-बड़े उघोगपतियों से हमारा अच्छा मेलजोल रहता है। उन्हीं की मदद से मैं सुभाष को बाहर भेज सका और खुद भी उससे मिलकर आ गया।’
‘आप ने सुभाष को विदेश भेजकर बड़ा कठोर कदम उठाया है। कैसे रह लेते हैं उसके बगैर?’ मीरा ने पूछा।
‘रह नहीं सका तभी तो अफ्रीका गया था एक उघोगपति के साथ। मैंने सुभाष को लेकर बहुत बड़े-बडे़ सपने देखे थे। उसकी रुचि पढ़ाई की तरफ कम ही रही। ऐसे में वह भारत में रहकर दस बरस में भी इतने रुपये नहीं कमा सकता था जितना वह इन तीन बरस में कमा लेगा। मैं चाहता हूँ उसकी जिंदगी सुख-सुविधाओं में बीते।

‘यही सोचकर हमने भी नरेश को जाने की इजाजत दे दी। शादी के दो महीने बाद ही वो अकेला अफ्रीका चला गया। हमने तो कहा है मालती को अपने साथ ले जाओ पर वह अभी मना कर रहा है।’ मीरा बोली।
‘सुभाष की शादी के बाद मैं बहू को उसके साथ भेज दूँगा और नरेश को भी मनाऊँगा कि वह मालती को भी बुला ले।’ दीपक बोले। मालती सास और अंकल की बात सुनकर रोमांचित हो गयी।

पूरा एक साल उसने पति से दूर रहकर गुजार दिया था। हरिकिशन और मीरा ने अपने बेटे की शादी जानबूझ कर विदेश जाने से पहले मालती के साथ कर दी थी। उन्हें डर था कहीं बेटा दूसरे देश जाकर वहीं का न हो जाए। सब कुछ जानकर मालती के माता-पिता ने यह रिश्ता मंजूर कर लिया था। बेटी के सुखद-भविष्य की खातिर उन्हें मालती के ससुराल से कोई शिकायत न थी।
विदेश जाने की बात सुनकर मालती कल्पनाओं में खो गयी।
‘कितना मजा आयगा पति के साथ अंजान जगह में घूमने-फिरने में। अब तो रुपयों की भी कमी नहीं रहेगी। वह खूब शापिंग करेगी और ढेर सारे गिफ्ट घर वालों के लिए भी खरीदेगी। कितने अच्छे हैं दीपक अंकल।’
दो दिन ऐसे ही बीत गये। दीपक के वापस लौटने में एक दिन रह गया था। इन दो दिनों में वे मालती से भी बहुत घुल मिल गये थे। दिनभर का काम निबटाकर वह उससे बोले-
‘बेटी, मुझे सुभाष की बहू बेला के लिए कुछ खरीदारी करनी थी। तुम चलोगी मेरे साथ बाजार?’
मालती ने सास-ससुर की ओर देखा, वे बोले-
‘जाओ बेटी, चली जाओ। इन्हें औरतों की जरुरतों के बारे में क्या पता? तुम्हारे साथ इनका काम हल्का हो जाएगा।’
मालती तुरन्त तैयार होकर आ गयी। वे दोनों खरीदारी के लिए चल पड़े। बाजार में उन्होंने कई सारे लेडीज आइटम देखे। अंकल ने एक सुन्दर सी साड़ी मालती को भी भेंट स्वरुप दी। लगभग दो घंटे में वे घर लौट आये। अंकल की दरियादिली की मालती कायल हो गयी। उसने जिस चीज पर हाथ रखा। उन्होंने तुरन्त वही वस्तु पसंद कर दी।

आज दीपक को जाना था। सभी का मन सुबह से भारी होने लगा था। दीपक की उपस्थिति में तीन दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। आज उन्हें आँफिस के काम के साथ कई सारे आइटम भी लेने थे जिन्हें वे कल मालती के साथ पसंद करके आये थे। दीपक माहौल को हल्का बनाने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे-
‘भाभी जी आप सब शादी में एक हफ्ते पहले ही आ जाइयेगा।’ मुझे आपसे बहुत से काम करवाने हैं।’
‘आप चिंता न करें, हम मौका मिलते ही सबसे पहले आ जाएंगे। आखिर नरेश की तरह सुभाष भी हमारा बेटा हैं।’
‘सो तो हैं।’
‘आप को पता है, मुम्बई से अफ्रीका जाते हुए नरेष को वीजा की समस्या के कारण कितना परेशान होना पड़ा था।’
‘हाँ, पता है एक बार तो उसने जाने का प्रोग्राम ही कैंसिल करने का मन बना लिया था। तब मैं नरेश से पहली बार मिला था, मुझे वह बड़ा भला लगा। इन दोनें के साथ तीन युवक और थे। उन सब का होटल में प्रबन्ध मैंने ही किया था। भविष्य के लेकर सब बहुत चिंतित थे। मि0 मान ने इंग्लैण्ड में रहते हुए अफ्रीका में डिटर्जेन्ट का कारखाना लगाया था। उसके लिए उन्हें प्रशिक्षित स्टाफ भारत से चाहिए थे। मि0 मान के सहयोगी नरेश के पूर्व मैंनेजर थे। सो उन्होंने नरेश के साथ तीन युवक और तैयार कर लिए। मेरा मान जी से पहले से परिचय था मैने सुभाष की सिफारिश की तो वे तुरन्त मान गये।’
‘सच में, आप की जितनी भी तारीफ की जाए उतनी कम है, सबके लिए कितना प्रेम है, आपके मन में।’
‘छोड़िये इन बातों को। अब मैं चलता हूँ। कुछ सामान साथ ले जा रहा हूँ। एक सूटकेस शाम को ले आऊँगा।’ कहकर दीपक चले गये।
हरिकिशन जी और मीरा को अपने चैकअप के लिए डाक्टर के पास जाना था। वह भी दीपक के जाते ही घर से निकल पड़े। अभी आधा घंटा भी न बीता था कि दीपक लौट आये और मालती से बोले-
‘बड़ी भूल हो गयी बेटी। मैं सबसे जरुरी काम तो भूल गया।’
‘वो क्या?’
‘मुझे बेला के लिए तुम्हारे पसंद के गहने खरीदने थे। इसके लिए मैं सोने के ये बिस्कुट साथ लाया था। आफिस के काम में ध्यान ही नहीं रहा। तुम चल सकोगी इस वक्त मेरे साथ खरीदारी के लिए। मेरे पास टाइम बहुत कम है। आज कई जरुरी काम निबटाने हैं।’
‘अंकल इस समय मम्मी-पापा घर पर नहीं हैं। करीब एक घंटे बाद आयेंगे। तब तक मुझे उनका यहीं इंतजार करना होगा।’
‘अच्छा ये बताओ, तुमने अपनी शादी के लिए गहने अपनी पसंद के बनवाये हैं या किसी और की पसंद के।’
‘अपनी पसंद के।’
‘तब तो मेरी परेशानी हल हो गयी। तुम अपनी ज्वैलरी मुझे दे दो। मैं इन्हें ज्वैलर्स को दिखाकर ऐसे ही गहने बेला के लिए बना दूँगा।’
मालती थोड़ा सा हिचकी पर दीपक अंकल के आग्रह को टाल न सकी और उसने अपनी ज्वैलरी लाकर उन्हें सौंप दी। बॉक्स हाथ में लेकर दीपक बोले-
‘चिंता मत करना मैं शाम तक लौट आऊँगा।’
दिन से ही मीरा दीपक के जाने की तैयारी करने लगी थी। उन्होंने डिनर में कई सारे व्यंजन बनाये थे। दीपक को रात की नौ बजे की ट्रेन पकड़नी थी, सो मीरा ने सारी तैयारी शाम तक ही पूरी कर ली थी। पाँच बजे से सब उनका इंतजार करने लगे। हरिकिशन जी की नजर लगातार घड़ी पर थी। आठ बजने को थे पर दीपक का कहीं पता न था। उसने सारे दिन से एक फोन तक नहीं किया था। मीरा से न रहा गया तो वह बोली,
‘शायद काम से समय नहीं निकाल सका होगा, हो सकता है आज के बजाए कल जाए।’
‘ये बात दीपक फोन से भी बता सकता था।’ हरिकिशन जी बोले।
सहसा मालती को सुबह की बात याद आ गयी। काम में तो वह भूल ही गयी थी कि दीपक अंकल उसकी ज्वैलरी लेकर गये हैं। वह तुरन्त बोली-
‘मम्मी जी आपके डॉक्टर के पास जाने के बाद अंकल वापस आये थे। मैंने उन्हें अपना ज्वैलरी बॉक्स दिया था।’ उसके बाद मालती ने अंकल के साथ हुई बातचीत को ज्यों का त्यों दोहरा दिया। सुनकर हरिकिशन जी व मीरा सन्न रह गये। उनके मुख से निकला,
‘यह नहीं हो सकता।’
‘तो क्या वे मेरी ज्वैलरी लेकर भाग गये होंगे?। उसमे लाखो के गहने थे।’
‘शुभ-शुभ बोलो, बेटी, हमें उसका इंतजार करना चाहिये। हो सकता है उन पर कोई मुसीबत आ गयी हो।’
हफ्ता पूरा होने को आया पर दीपक नहीं लौटे।
शनिवार को निर्धारित समय पर नरेश का फोन आया तो कुशल खबर पूछने के बाद मीरा ने सुभाष का जिक्र छेड़ा–
‘बेटा सुभाष कहाँ है? उसे बधाई देनी है।’
‘किस बात की मम्मी?’
‘उसकी शादी की, तुम दोनों ने खुशखबरी हम सब से छुपा कर रखी।’
‘ये आप से किसने कहा?’
‘हमारे पास उसकी शादी का कार्ड है। खुद उसके चाचा दे गये हैं।’
‘जरुर किसी ने आपको बेवकूफ बनाया है। आप जानती हैं हमारा तीन साल का एग्रीमेंट है, कम्पनी के साथ। दो साल बाद ही हम एक महीने के लिए भारत आ सकते हैं। भला वगैर दूल्हे के यह शादी कैसे हो सकती है मुम्बई में?’
नरेश की बात सुनकर मीरा के मुख की रौनक उड़ गयी। उसके हाथ से रिसीवर लेकर हरिकिशन जी ने सारी बात संक्षिप्त में उसे बता दी। हाँ ज्वैलरी की बात उन्होंने नरेश को नहीं बताई। सुनकर वह बोला-
‘पापा जमाना बदल गया है। रोज अखबारों में आप धोखाधड़ी के किस्से पढ़ते हैं। बिना जाने परखे ऐसे ही किसी की बात पर विश्वास मत करना। अच्छा हुआ वो बिना कोई नुकसान पहुँचाए वहाँ से चला गया। सुभाष का इस नाम का कोई चाचा नहीं है।’
‘पर वह तो तुम्हारे बारे में सब कुछ जानता है।’
‘कई दिनों से उसकी आप पर नजर रही होगी। हो सकता है वो हमसे मुम्बई में मिला भी हो। आप भी सरल स्वभाव के हैं घर की बात सब से कह देते हैं। ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं। पूरी जानकारी के साथ घर मे घुसते हैं।’ नरेश फोन पर बोला।
मालती ने भी आज नरेश से थोड़ी ही देर बात की। मम्मी-पापा की तरह उसने भी ज्वैलरी के बारे में नरेश को कुछ नहीं बताया। फोन पर बात खत्म कर वे सब बड़े दुखी लग रहे थे।

लाखों रुपयों का नुकसान हो चुका था। गुस्से में आकर उन्होंने दीपक का सूटकेस जोर से पटक कर बाहर फेंक दिया। दीवार से टकराकर उसमें रखा सामान बिखर गया। उन्होंने देखा सूटकेस में बेला के नाम पर की गयी खरीदारी का सामान रखा था। भावी दुल्हन के श्रृंगार का सामान बिखरा पड़ा था। मालती उन्हें एक-एक कर समेटने लगी। इन्हें खरीदते हुए उसने उस बहुरूपिये का जो विश्वास हासिल किया था उसकी कीमत उसे अपनी सारी ज्वैलरी देकर चुकानी पड़ी थी।


लेखिका का परिचय

वर्ष 2020 मे  प्रधानाचार्या  पद से सेवानिवृत्त। शिक्षण , समाज सेवा के साथ तीन दशक से बच्चों एवं व्यस्कों के लिए कहानी लेखन में सक्रिय ।  वर्ष 2015 में उत्तराखंड राज्य का सर्वोच्च शिक्षक सम्मान ‘शैलेश मटियानी शैक्षिक उत्कृष्टता पुरस्कार’ तथा 2016 में ‘राष्ट्रपति पुरस्कार’ से सम्मानित। कोरोना काल में जिला प्रशासन देहरादून द्वारा समाजसेवा के लिए कोरोना योद्धा सेवा सम्मान से  अलंकृत ।
साहित्य के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित। विगत बारह वर्षों से  बाल समाचार पत्र ‘बाल पक्ष’ का सफल संपादन  । इनकी लिखी कहानियां सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित ।  अब तक चार बाल कहानी संग्रह व एक बाल उपन्यास प्रकाशित।

डॉ० के० रानी
(डॉ० कुसुम रानी नैथानी)
पता –
डॉ० के ० रानी
(डॉ० कुसुम रानी नैथानी)
माणी गृह  318 ए ओंकार रोड
चुक्खुवाला देहरादून (उत्तराखंड) 248 001
Mo. 9412922513

 

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