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छोटी उम्र में की पहाड़ों से दोस्ती, एवरेस्ट पर फहराया तिरंगा, मिला पद्मभूषण सम्मान

देहरादून। जिंदगी एवरेस्ट की तरह है। इसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लेकिन मुसीबतों से हारने के बजाय चुनौतियों का सामना करना असली खिलाड़ी की पहचान है। पहली भारतीय महिला पर्वतारोही बछेंद्री पाल की इसी सोच के चलते उन्हें पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। बछेंद्री पाल ने इस पुरस्कार को महिला शक्ति को समर्पित किया है। वहीं, उत्तराखंड के प्रसिद्ध जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण को भी पद्मश्री पुरस्कार मिला है। देश के शीर्ष पुरस्कारों के लिए प्रदेश की दो हस्तियों का चयन होना प्रदेशवासियों के लिए गर्व का क्षण है।

 

बछेंद्री पाल के सफर पर एक नजर
बछेंद्री ने 12 वर्ष की छोटी उम्र से ही पर्वतारोहण की शुरुआत की थी। 1984 में भारत का चौथा एवरेस्ट अभियान शुरू हुआ। इसमें बछेंद्री समेत सात महिलाओं व 11 पुरुषों की टीम ने हिस्सा लिया। इस टीम ने 23 मई 1984 को 29,028 फुट (8,848 मीटर) की ऊंचाई पर सागरमाथा एवरेस्ट पर भारत का झडा लहराया था। इसी के साथ बछेंद्री पाल एवरेस्ट पर फतेह करने वाली दुनिया की 5वीं व भारत की पहली महिला बनी।
उन्होंने 1994 में गंगा नदी में हरिद्वार से कलकत्ता तक 2,500 किमी लंबे नौका अभियान का नेतृत्व भी किया। हिमालय के गलियारे में भूटान, नेपाल, लेह और सियाचिन ग्लेशियर से होते हुए काराकोरम पर्वत श्रृंखला पर समाप्त होने वाला 4,000 किमी लंबा अभियान भी उन्होंने पूरा किया, जिसे इस दुर्गम क्षेत्र में प्रथम महिला अभियान माना जाता है। बछेंद्री पाल उत्तरकाशी की रहने वाली हैं।
प्रीतम भरतवाण के सफर पर एक नजर 
देहरादून जिले के रायपुर ब्लॉक के सिला गांव के रहने वाले हैं। छह साल की छोटी उम्र से लोकगीत गाना शुरू कर दिया था। 1988 से ऑल इंडिया रेडियो से जुड़ गए थे। 150 से ज्यादा एलबम निकाल चुके हैं। ढोल सागर में पारंगत माने जाते हैं।
वहीं सम्मान मिलने पर बछेंद्री पाल ने कहा कि पद्मभूषण पुरस्कार मिलना बेहद गौरव का क्षण है। लेकिन, मैं ये पुरस्कार महिला शक्ति को समर्पित करती हूं। आज बछेंद्री पाल की तरह लाखों बछेंद्री तैयार हो चुकी हैं, जो सिर्फ पर्वत की ऊंचाई नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में आसमान छू रही हैं।
प्रीतम भरत्वाण ने कहा कि लोक कलाकार का सम्मान उत्तराखंड की लोककला का सम्मान है। मेरे जीवन का उद्देश्य उत्तराखंड की लोक कला एवं जागर का संरक्षण है, ताकि आने वाली पीढ़ी को सांस्कृतिक धरोहर से रूबरू कराया जा सके।

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