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हरा सोना यानी लीसा… बोर होल पद्वति का सबसे पहले प्रयोग उत्तराखंड में… कमलेश्वर प्रसाद भट्ट की विशेष रिपोर्ट

संकलनकर्ता: कमलेश्वर प्रसाद भट्ट

कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन के होते सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की विकास दर में दिखाई दे रही भारी गिरावट सबके लिए अति चिंतनीय व विचारणीय है। विद्वान अर्थशास्त्रियों के मुताबिक कृषि को छोड़कर अन्य मुख्यतः परिवहन, व्यापार, संचार, ऊर्जा, खनन, सेवा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारी गिरावट देखने को मिली है। समस्याओं से निजात पाने के लिए केन्द्र के साथ ही राज्य सरकारें भी अवसर तलाशने में लगे हैं।
उत्तराखंड राज्य हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य स्थित है, इन्हें श्रृंखलाओं में विभिन्न प्रकार की बहुमूल्य वनस्पतियों का प्रचुर मात्रा में भण्डार उपलब्ध है। उत्तराखंड के कुल क्षेत्रफल (53,483 sq.km.) का 61.43 प्रतिशत क्षेत्र वनों से आच्छादित है, लगभग 26 प्रतिशत क्षेत्र के अंतर्गत चीड़ वृक्षों के वन पाये जाते हैं। उत्तराखंड के परिपेक्ष्य में चीड़ वनों का हिमालयी पारिस्थितिकी, स्थानीय ग्रामीण आजीविका एवं सरकार के लिए राजस्व प्राप्ति आदि अन्य वृक्ष प्रजातियों की तुलना में सबसे अधिक महत्व है। राज्य के ग्रामीण अंचलों में भवन निर्माण, फर्नीचर, कृषि उपकरणों, जानवरों के नीचे बिछाने, ईंधन हेतु छिलका-गुलिया, पिरूल कपड़ा व बिजली आदि काम के लिए चीड़ वृक्ष का सबसे ज्यादा उपयोग किया जाता है।

वर्तमान में हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या है रोजगार की, लेकिन इस चुनौती का समाधान भी हमें ही ढूंढना होगा, पहाड़ी राज्य होने के कारण हमें पहाड़ों की तरह सामना करना भी आता है। हमारी वन-सम्पदा मजबूत आर्थितिकी के साथ-साथ राजस्व वृद्धि के दृष्टिकोण से अतिमहत्वपूर्ण है। निःसंदेह स्थानीय लोगों को रोजगार देने में मददगार साबित हो सकती है। किन्तु इसके लिए हमें पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन की पूर्ण जिम्मेदारी भी समझनी होगी। आज हम बात करते हैं’

1892 से हो रहा चीड़ के वनों का प्रबंधन

लीसा'(Resin) की, जी हाँ लीसा। ‘लीसा’ चीड़ वृक्ष से उत्सर्जित पदार्थ है। ‘तारपीन का तेल’ और ‘विरोजा’ दो मुख्य उत्पाद हैं इसके। चीन, ब्राजील, इंडोनेशिया, रूस, वियतनाम, पुर्तगाल, वेनेजुएला, अमेरिका, भारत एवं नेपाल मुख्य उत्पादक देश हैं, जी हाँ 1.2 मिलियन टन लीसा का उत्पादन होता है सम्पूर्ण विश्व में।विश्वभर का लीसा व्यापार (WORLD TRADE) हजारों विलियन डॉलर का है तथा लीसा इंडस्ट्री में प्रतिवर्ष 05 से 07 प्रतिशत की दर से ग्लोबल वृद्धि हो रही है। यह हमारे देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है।
अगर हम पीछे नजर डालें तो वन विभाग, उत्तराखंड द्वारा चीड़ वनों का वैज्ञानिक तरीके से प्रवन्धन वर्ष 1892 से किया जा रहा है। व्रिटिशकाल में इन वनों को रेलवे के स्लीपर बनाने, बिजली के खम्भों, क्षय रोग के उपचार, पैकेजिंग एवं कंस्ट्रक्शन टिम्बर आदि उपयोग हेतु किया जाता था। वर्तमान में चीड़ वनों का प्रवन्धन लकड़ी (Timber) एवं लीसा (Resin) विदोहन हेतु किया जा रहा है। वन विभाग द्वारा लीसा विदोहन का कार्य 1960-65 में सर्वप्रथम जोशी-वसूला तकनीक (Cup and Lip method) से प्रारम्भ किया गया था। इस तकनीक से वृक्षों को भारी नुकसान पहुंचा, जिसके कारण इस तकनीक को बन्द कर यूरोपीयन ‘रिल पद्धति’ से वर्ष 1985 के बाद से वर्तमान समय तक किया जाता रहा। रिल पद्धति से वृक्षों को होने वाले भारी नुकसान के कारण राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों के साथ ही विशेषज्ञों द्वारा इसका कोई ठोस विकल्प तलाशने का प्रारम्भ से ही खासा जोर दिया।

देश ने पहली बार नरेंद्रनगर प्रभाग कर रहा बोर होल पद्वति का प्रयोग

वनों को हो रही अभूतपूर्व क्षति, स्थानीय आजीविका संवर्धन, वन/पर्यावरण सुरक्षा, लीसा की गुणवत्ता एवं राजस्व आदि को ध्यान में रखते हुए प्रभागीय वनाधिकारी नरेन्द्र नगर वन प्रभाग एवं उनकी टीम ने इस दिशा में अभिनव व अति आवश्यक पहल की है। प्रभागीय वनाधिकारी धर्म सिंह मीणा ने लीसा टिपान (Resin Tapping) के लिए इस नवीन एवं अभिनव पद्धति Modified Bore – Hole Technique की शुरूआत नरेन्द्र नगर वन प्रभाग टिहरी गढ़वाल में वर्ष 2019-20 से किया जा रहा है। उप प्रभागीय वनाधिकारी मनमोहन सिंह बिष्ट की कार्यशैली व कर्मशीलता से स्टॉफ भी पूर्ण मनोयोग से योजना को गति प्रदान कर रहे हैं। वास्तव में लीसा टिपान की ‘बोर-होल’ तकनीक, लीसा की गुणवत्ता एवं मात्रा, श्रमिकों की कार्यकुशलता, चीड़ वृक्षों की वनाग्नि सुरक्षा, इंसेक्ट व पेस्ट अटैक एवं वीमारियों से सुरक्षा, स्थानीय ग्रामीणों को रोजगार, निरंतरता व राजस्व वृद्धि आदि दृष्टिकोण से अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। इतना ही नहीं, यह तकनीक वन एवं पर्यावरण के संरक्षण व प्रवन्धन के उद्देश्य से भी अति उपयोगी है। उल्लेखनीय है कि इस तकनीक का उपयोग भारत में पहली बार नरेन्द्र नगर वन-प्रभाग द्वारा किया जा रहा है, जो कि कई मायनों में परंपरागत रिल पद्धति की तुलना में अच्छी एवं ईको-फ़्रेंडली है। संक्षेप में ‘बोर-होल’ पद्धति से लीसा विदोहन के फायदे की बात करें तो इन्हें मुख्यतः वन एवं पर्यावरण सुरक्षा, प्राप्त राजस्व में वृद्धि एवं आजीविका संवर्धन आदि श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।

स्थानीय बेरोजगारों के लिए रोजगार के अवसर

मुख्य बात यह है कि सम्पूर्ण उत्तराखंड में लीसा टिपान से अनुमानित 450,00 श्रम दिवस (Man- Days) उत्पन्न होंगे। लीसा विदोहन कार्य प्रत्येक वर्ष 08 महीने चलता है, ऐसे में इन मजदूरों को अपने क्षेत्र में ही जहाँ लगभग 08 से 09 महीने का रोजगार प्राप्त होगा, वहीं अनुमानित 15 करोड़ रुपये का मानदेय प्रति वर्ष इन्हें वितरित किया जायेगा। विशेषज्ञों की मानें तो, परंपरागत ‘रिल’ विधि की अपेक्षा ‘बोर-होल’ तकनीक से जहाँ श्रमिकों की कार्यकुशलता में वृद्धि होगी, वहीं स्थानीय वन-पंचायतों के बेरोजगार युवाओं को ही प्रशिक्षण प्रदान कर लीसा टिपान कार्य के लिए उपयोग में लाया जा सकता है। जिससे न केवल स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा, अपितु जंगलों की सुरक्षा व्यवस्था भी बढ़ जाएगी। वहीं, प्रभागीय वनाधिकारी धर्मसिंह मीणा का मानना है कि ‘बोर-होल’ तकनीक से अभी तक प्राप्त परिणामों के अनुसार प्रति वृक्ष औसत लीसा आमद 04.5 किग्रा तक की प्राप्त हुई है, चूंकि अभी लीसा टिपान चल रहा है तो दिसम्बर तक अन्तिम परिणाम आने की संभावना बनती है।
इस अभिनव कार्य के उत्साहजनक परिणाम को देखते हुए विश्वास व्यक्त किया गया कि निश्चित रूप से यह तकनीक अन्य जनपदों के लिए अनुकरणीय साबित होगी।

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