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हरीश कंडवाल मनखी की कलम से एक रचना.. जाओ तुम

जाओ तुम

आज सब्जी में नमक ज्यादा है,
चावल थोड़ा गीले हो गए हैं
रोटी जल गई ,चाय में मीठा कम है
भोजन तो अच्छा है, स्वाद नहीं है।

अभी तो मैंने पोछा लगाया है
गीला तौलिया बिस्तर पर फेंका है
कितना काम करू, मैं भी इंसान हूँ
थोड़ा आराम करने दो बीमार हूँ।

तुमको हमारी बिल्कुल परवाह नहीं
तुम में अब वह पहले जैसे बात नही
तुम हर वक्त कीच कीच करते हो
सुबह शाम बेफजूल की बहस करते हो।

जाओ तुम किसी और से शादी कर लो
हमको इस बंधन से हमे जल्दी मुक्ति दे दो
अक्सर ऐसा हर घर मे यह होना स्वाभाविक है
क्योकि दो अनजान का मिलन सार्वभौमिक है।

लेकिन जब गृहस्थ पर कोई मुसबीत आती है
हर पुरुष वीरभद्र, नारी काली बन जाती है
सात जन्मों का यह रिश्ता अटूट हो जाता है
हल्की फुल्की नोक झोंक,रिश्ते में मिठास लाता है।

औलाद बड़े होकर अपने जीवन मे रम जाते हैं
बुढ़ापे में पति पत्नी एक दूजे के सहारे बनते हैं
दो अनजान मिलकर, दुनिया को आगे बढ़ाते हैं
इसलिये तो वह गृहस्थ में हमसफ़र कहलाते हैं।

©®@ हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।

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