कवि जसवीर सिंह हलधर की एक ग़ज़ल, खलिहान ही उजड़े मिले, महकी मिलीं सब मंडियां..
जसवीर सिंह ‘हलधर’
देहरादून, उत्तराखंड
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ग़ज़ल (हिंदी)
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राही सभी थक कर गिरे, चलती रहीं पगडंडियां।
खलिहान ही उजड़े मिले, महकी मिलीं सब मंडियां।
जो काम उत्तम था कभी क्यों लाभ से वंचित हुआ,
क्यों आत्म हत्या हो रहीं बोलीं चिता की कंडियां।
कुछ लोग पीछे रह गए कुछ दौड़ कर आगे बढ़े,
कुछ झोपड़ी कोठी बनी कुछ कोठियां वनखंडियां।
निर्जल मरुस्थल में शहर रोती मिली यमुना नदी,
वातानुकूलित होटलों में थिरकती अब संडियां।
अब नग्नता हावी हुई देखो कला के नाम पर,
फिल्मी सितारा बन गयी है कुछ विदेशी गुंडियां।
अब निर्भया जैसा न हो इस बात पर भी ध्यान दो,
बेटे बनाओ देवता या बेटियों को चंडियां।
हैं जिंदगी के चार दिन मानव नहीं समझा कभी,
अर्थी बनेगी बांस की चांदी न सोना डंडियां।
हो भावना में लीन “हलधर”लिख रहे ये मुक्तिका,
सबका वरण करता मरण चंडाल हो या पंडियां।