मातृ दिवस पर कवि जसवीर सिंह हलधर की एक हिंदी ग़ज़ल
जसवीर सिंह हलधर
देहरादून, उत्तराखंड
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ग़ज़ल ( हिंदी)-माँ
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(माँ दिवस पर विशेष)
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अपने लिए कुछ भी कभी क्या जोड़ती है माँ।
औलाद की खातिर शिला भी तोड़ती है माँ।
बेटे भले दो चार हों या तीन बेटियां,
क्या भूख से रोता किसी की छोड़ती है माँ।
गर आँधियाँ आयें कभी बच्चों की राह में,
तूफान के भी होंसलों को मोड़ती है माँ।
जब दौड़ में शामिल हुए बेटी स्कूल में,
तब हर कदम पे साथ उसके दौड़ती है माँ।
देखा नहीं हमने कभी ईश्वर जमीन पे,
लगता उसी की बागवानी गोड़ती है माँ।
क्या जानते थे हम यहाँ दुनियाँ जहान को,
अज्ञानता का घट हमारा फोड़ती है माँ।
बेसक गरीबी भुखमरी आये नसीब में,
गर्दन बुरे हालात की झकझोड़ती है माँ।
वो दूध जो “हलधर” पिये हैं कर्ज मात का,
संतान मुँह अमृत सुधा निचोड़ती है माँ।