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वरिष्ठ कवि जीके पिपिल की एक गज़ल… मेरे बस में होता तो तुझे इस बात पे राजी करता

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड


 

गज़ल
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मेरे बस में होता तो तुझे इस बात पे राजी करता
कुछ रोज़ मैं भी तेरे साथ मेहमान नवाज़ी करता।

तेरे क़दमों में रख देता इश्क़ की सब दलीलों को
अपनी मुहब्बत के मुक़द्दमे में तुझे क़ाज़ी करता।

तेरे बदन को बना कर मस्जिद करता मैं इबादत
तुझको ख़ुदा बनाकर मैं ख़ुद को नमाज़ी करता।

जिन जिन रहगुज़रों से हम गुजरे थे कभी दोनों
वहाँ से फ़िर गुजर कर पुरानी यादें ताज़ी करता।

सबको द्रोणाचार्य जैसे कपटी उस्ताद नहीं मिलते
वरना मैं भी अर्जुन की तरह ही तीरंदाजी करता।

वो तो उसको मोहब्बत में जिताने वाली बात थी
वरना वक़्त से पहले मैं ख़त्म नहीं बाज़ी करता।

आज कल वो कुछ ज़्यादा ही उड़ रहा है हवा में
जो पंख होते तो आसमानों में क़लाबाज़ी करता।

सच हो गया कि उसकी रगो में मिलावटी खून है
वरना ग़ैरों के साथ क्या हमसे दग़ाबाज़ी करता।।

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