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देहरादून से जीके पिपिल की एक ग़ज़ल… बिना ज़मीन के अब कुछ लोग ज़मींदार हो गये..

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड


गजल
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बिना ज़मीन के अब कुछ लोग ज़मींदार हो गये
जैसे हिंदी के गीतकार उर्दू के गज़लकार हो गये।

सरस्वती पुत्र अब सरस्वती की वंदना नहीं करते
ये महफ़िल में शमाँ जलाने वाले ठेकेदार हो गये।

जिस माता ने बोलना कमाना सिखाया हिन्दी में
ये उसी को छोड़ कर मौसी के मददगार हो गये।

नागफ़नी के पौधे कभी फल और छाँव नहीं देंगे
जाने कैसे ये हिन्दी के आँगन में गुलज़ार हो गये।

ये पैदायशी नहीं हैं सोहबत का असर है इन पर
जो खीर के बदले बिरयानी के तलबगार हो गये।

मानो साजिशों के तहत इनको धार दी जाती है
अपनी जड़ों को खोदने के ख़ुद औज़ार हो गये।

इनको पुचकार पुचकार कर सब बुद्धु बनाते हैं
मगर ये समझते हैं कि ये बड़े समझदार हो गये।

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