भाव और शब्दों का अनूठा संगम है कांता घिल्डियाल का ‘मुट्ठी भर रंग’, जिसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए..
-कवि कांता घिल्डियाल के काव्य संग्रह “मुट्ठी भर रंग” का लोकार्पण गत माह हुआ। पद्मश्री लीलाधर जगुड़ी ने कांता की कविताओं की जमकर तारीफ की। यह विशेष इसलिए है कि देहरादून में पहली बार जगुड़ी ने किसी की कविताओं की सराहना की। “मुट्ठी भर रंग” बहुत की उत्कृष्ट काव्य संग्रह, जिसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। काव्य संग्रह की समीक्षा डॉ विद्या सिंह ने की है।
डॉ विद्या सिंह
पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग
एमकेपी (पी जी) कॉलेज, देहरादून
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लेखन उद्वेलित मन और सोच का अंतिम शरण्य होता है। यहाँ रचनाकार स्वयं को उड़ेलकर तनावमुक्त हो जाता है। साहित्य की अनेकानेक विधाओं में कविता सर्वाधिक प्राचीन विधा है। कवि संवेदनशील प्राणी होता है , अतः शोषित , वंचित एवं उत्पीड़ित व्यक्ति की पीड़ा का वह स्वयं अनुभव करता है और अपनी संवेदना को अपनी रचना के माध्यम से पाठकों तक सम्प्रेषित करता है। जमीनी तौर पर कुछ भी कर पाने में असमर्थ कवि अपनी कविता के माध्यम से अपना प्रतिरोध उस मत्स्यन्याय के प्रति व्यक्त करता है जिसका बोलबाला समाज में है। कविता का जन्म ही करुणा से हुआ है।
इस दृष्टि से देखें तो कवि कान्ता घिल्डियाल की भावप्रवणता उनकी कविताओं में स्पष्ट दृष्टिगत होती है। मुट्ठी भर रंग उनकी सौ कविताओं का संकलन है जो विषय की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी संवेदना की परिधि में आम आदमी का दुःख दर्द ही नहीं है , बल्कि निरंतर विरूपित होती प्रकृति की पीड़ा भी समाविष्ट है। संवेदनहीनता और संवादहीनता के इस दौर में अपने जल-जंगल-ज़मीन से प्रेम करना, अपनी मिट्टी से प्रेम करना और दूसरों को भी इस ओर जाग्रत करना हमारा कर्तव्य है , धर्म है वरना विकास व आधुनिकता के नाम पर हम अपना सब कुछ खो देंगे।
प्रस्तुत संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए इस बात का तीव्रता से बोध होता है कि कंक्रीट के जंगल में रहने को बाध्य कवि का मन आज भी प्रकृति के साहचर्य की आकांक्षा रखता है। चिड़िया , फूल , पहाड़ , नदी उनके प्रिय विषय हैं। अपने समय की विसंगतियों पर भी उनकी दृष्टि है किन्तु जहाँ भी सौंदर्य है , उम्मीद है उसे इंगित करने में वह नहीं चूकतीं। संग्रह की पहली कविता ‘गौरैया’ कान्ता घिल्डियाल के प्रेमिल हृदय का परिचय प्रस्तुत करती है। गौरैया कभी उन्हें बेटी लगती है , तो कभी अपना बीता हुआ कल लगती है, कभी सहेली तो कभी बहन और दूसरे के आँगन में उड़ जाने पर अपना आने वाला कल लगती है। प्रकृति हमारे परिवेश का ज़रूरी हिस्सा है। वस्तुतः प्रकृति विहीन जीवन जड़ जीवन है। मनुष्य का अस्तित्व प्रकृति के बिना संभव ही नहीं है। संग्रह की अनेक रचनाएँ प्रकृति के सौंदर्य को , उसकी उपादेयता को और साथ ही प्रकृति के प्रति मानव के निष्ठुर व्यवहार को ध्यान में रखते हुए रची गईं हैं। ‘परम्परा’ कविता में कवि का कथन है , “बदहवास मानव/प्रकृति पर/कहर बरपा कर/न जाने कहाँ पहुँचना चाहता है।” सावन , सांध्य-समर्पण , गुहार आदि नदी से सम्बंधित कविताएँ हैं। नदी की पुकार पर बादल स्नेह जल बरसाते हैं , यह उर्वर कल्पना से प्रसूत बिंब है। “मानव की मनमानियों से आजिज़/ गुहार लगाती नदी की/ मैली देह पर/ आहत बादलों ने/ द्रवित मन से बरसाया जल।” नदी कभी तपस्विनी , कभी दुबली-पतली पनिहारिन , कभी अपराधिनी और कभी दुर्लभ जीवनदायिनी प्रतीत होती है।
प्रेम जीवन का सार तत्व है। इसके बिना मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। प्रेम मिलन के क्षणों में तो सुख देता ही है वियोग में उसकी स्तिथि अत्यंत मादक होती है। प्रस्तुत संकलन में प्रेम की अनेकानेक छवियों को उकेरती सुंदर कविताएँ हैं। संकलन की शीर्षक कविता ‘मुट्ठी भर रंग’ में कवि कान्ता घिल्डियाल कहती हैं , “तभी तो /असीम चाहत की आस में/ जब रूह ने रूह को छुआ था/ तब अपनी हथेली/ व मेरे माथे के दरमियाँ /तुमने मुट्ठी भर रंग भरा था।”
मखमली प्रेम , नेह-निमंत्रण , घाव , अहसास , प्रेम-पत्र , नदी सी औरत अच्छी प्रेम कविताएँ हैं। प्रेम-बीज कविता की पंक्तियाँ हैं , “निःशब्द , अलौकिक अहसास संग/ तुम यूँ उतरते हो मेरे भीतर /ज्यों नदी के भीतर /उतरता है चंद्रमा।” ‘स्नेह का अर्थशास्त्र में’ वह कहती हैं , “जानती हूँ /स्नेह का अर्थशास्त्र/ देते रहने से भी/ शुक्ल पक्ष के चाँद सा/ बढ़ता जाता है/ बढ़ता जाता है।” किंतु अब प्रेम बदल गया है , “अब प्लास्टिक सा/ हो गया है प्रेम /प्रेमी-प्रेमिकाएँ/ प्रेत व प्रहरी बन/ प्रेम-प्रासादों पर प्रतिपल/ कर रहे हैं पैने प्रहार।”
आज सबसे बड़ी चुनौती है मानवीय संबंधों को बचाए रखने की। कार्ल मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवादी समाज में आर्थिक संबंध ही सारे संबंधों का नियंता होता है। अपने समाज में अर्थ के प्रभुत्व को हम स्वयं देख रहे हैं। मनुष्य के जीवन में अर्थ इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि और अधिक उपार्जन में माता-पिता का रिश्ता भी गौण हो जाता है। ‘बुज़ुर्ग’ कविता में कवि ने इस पीड़ा को दर्शाया है, “ख़ुद के अकेलेपन और घुटन से/ जूझते असहाय बुज़ुर्ग/ कर लेते हैं अपनों की/ उपेक्षित नज़रों से दोस्ती।” अत्यंत मार्मिक पंक्तियाँ हैं ,”झुर्रीदार चेहरे पर/ खारे पानी संग/ वो दिन में सोचते हैं कई बार/ कि हज़ार बार मरकर भी/ मौत से पहले/ कहाँ मरता है इंसान।” धन के ही कारण गाँवों से पलायन हो रहा है और गाँव ख़ाली हो रहे हैं।इस ओर भी कवि की दृष्टि गयी है।
वर्तमान समय में देश बड़ी विषम स्थितियों से घिरा हुआ है। यह इतिहास का सबसे ज़्यादा हिंसक समय है। शिक्षा ,धर्म , समाज , राजनीति , प्रशासन सभी स्खलन के शिकार हुए हैं। कवि को अन्याय का यह रूप आहत करता है। वह अपनी कविता के माध्यम से पाठकों के अंतस में इस यथार्थ को गहराई से संप्रेषित कर सक्रिय विरोध की ज़मीन तैयार करती हैं। माँ , झुनझुना , हमसफ़र , मुखौटा , अंधभक्ति , लिव-इन रिलेशन आदि कविताएँ अपने समय का आईना हैं। उनकी ‘हमसफ़र’ रचना में पहाड़ी नारी के कठिन जीवन संघर्ष की झलक दिखती है। ‘झुनझुना’ कविता में वह कहती हैं ,”दफ़्तरों की सीढ़ियों में/ गरीबी की मार झेल रही /असहाय आबादी की आँखों में/ वर्षों से आश्वासनों की झड़ियों से/ लबालब भरे पानी को/ बहने से रोकने को /बनाए गए सांत्वनाओं के बांध।”
अपनी कविता ‘खिला दो सुमन’ में वह आसपास व्याप्त बुराईयों से आहत होकर ईश्वर से समाज व राष्ट्र की खुशहाली की कामना करती हैं।
आज धर्म के क्षेत्र में जितनी गिरावट आयी है उतनी पहले कभी नहीं देखी गयी। “अंधभक्ति” कविता में कवि कहती हैं ,”धर्म व आस्था के नाम पर/अनेकों स्वघोषित संत/ अध्यात्म व सदभावना का चोगा पहनकर/ संसार के संघर्षों से/थकी हताश आबादी का/ शिकारी बन करते हैं शिकार।” पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री पुरूष के लिए तकिया , चादर जैसी कोई उपयोगी वस्तु है , कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व संपन्न मानवी नहीं। उसका अपना कोई घर नहीं है। ‘बेघर’ कविता की पंक्तियाँ हैं , “मेरी माँ की तरह ही /मेरा भी नहीं है/ कोई घर”। पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री दोयम दर्ज़े की नागरिक है किंतु इसी व्यवस्था में रहते हुए वह उत्तरोत्तर प्रगति के सोपान पर अग्रसर है। बदलाव कविता में कवि का कथन है,”स्त्री अपने ख़िलाफ़/ उठती नज़रों को नजरअंदाज कर/ सँजो रही है /आँखों में सुनहरे ख़्वाब /वर्जनाओं को मात देकर/ बुन रही है बदलाव के सपने।”अपनी अन्य कविता में वो संस्कारों की जड़ता को ढ़ोती स्त्रियों की भी बात करती हैं जो विचारों से तो प्रगतिशील प्रतीत होती हैं लेक़िन असल जीवन में वो बोझिल परंपराओं से जकड़ी रहती हैं। कवि लड़कियों को प्रेरित करती है ,”चन्द मुट्ठी भर/ बड़े लोगों की /छोटी सोच से डरकर /तुम विराम न देना /उड़ान को अपनी।”वो लड़कियों को जिंदादिली व बहादुरी से जीवन की चुनौतियों का सामना करने को कहती हैं ,”न मान ख़ुद को/ कमनीय , कोमल परी सरीखी/ खुद निपट विप्लवों से /तू सृष्टि की रचना अनोखी।” कवि कान्ता घिल्डियाल का हृदय उन बेटियों के लिए द्रवित होता है जिन्हें दरिंदगी का शिकार बन जाना पड़ा। ‘न आईना , न रौशनी , न खिड़कियाँ’ में वह कहती हैं , “न्याय के इंतज़ार में बैठे/ बेगुनाहों की चीखें/ कचोटती हैं दिन-रात/ कानों में शीशे सा पिघलता है /गुनहगारों के किए की सजा भुगतती/ भय मिश्रित आहों का आलाप।” वस्तुतः स्त्रियों की इतनी तरक्की के बाद भी वह गौरवपूर्ण जीवन उनके हिस्से नहीं आया है जिसकी वे अधिकारी हैं। रिश्तों पर बहुत खूबसूरत कविताएँ लिखी हैं कान्ता जी ने। माँ-बेटी के रिश्ते पर अनेक सुंदर रचनाएँ इस संग्रह में हैं।
अन्याय के प्रायः प्रत्येक पक्ष पर कवि की दृष्टि गयी है। उनका मन उस मजदूर के लिए द्रवित होता है जिसके श्रम का शोषण उनके मालिकों द्वारा हमेशा के लिए किया जाता रहा है। मालिकों की तुलना उन्होंने मोटी हुई बड़ी-बड़ी जोंकों से की है। अभी कोरोना काल में हमने उनकी दयनीय स्तिथि देखी कवि ने कोरोना पर तथा उस दौर में मजदूरों की विवशता को अपना विषय बनाया है।
किसान समाज की रीढ़ हैं। उन्हीं के उपजाये अन्न से सबका भरण-पोषण होता है किन्तु वही सर्वाधिक गरीबी में जीवन यापन करते हैं। “टँगती साँसों को/ ढ़ोते हुए बदलता है /माटी के टीलों को निवालों में /और पोषता है उन्हीं की देह/ जो जोंक बनकर /मुनाफ़ाखोरी की मंडी में/ उसी की देह का /चूसते हैं ख़ून।” ‘अन्नदाता’ कविता में कवि ने अपनी संवेदना उन किसानों के प्रति दिखायी है, जो “जेठ की तपती दुपहरी हो/ या माघ-पूस की ठिठुरती सुबह /पसीने से तरबतर अन्नदाता /धरती का सीना चीरकर/ दिन-रात करता है मशक्क़त”।
समय के साथ बहुत सी चीजें हमसे छूटती जाती हैं नया पुराने को अपदस्थ कर देता है। कभी लेटर बॉक्स की बड़ी अहमियत हुआ करती थी किन्तु आज वह जहाँ भी है , उपेक्षित पड़ा है। कवि कान्ता घिल्डियाल की दृष्टि उस पर भी पड़ती है।कविता उनके लिए मात्र मनोरंजन की वस्तु नहीं है। इस तथ्य को वह ‘कविता’ रचना में इस प्रकार व्यक्त करती हैं , “कविता सिर्फ़ वही नहीं होती/ जो तालियाँ बटोरने को/ पढ़ी जाये मंचों पर कविता थकान और बेचैनी में/ होती है मीठी लोरी सी।” शहर के कोलाहल से जब मन ऊब जाता है, तो स्वयं में डूब जाना बेहतर लगने लगता है , इस भाव को व्यक्त करती कविता है ‘अनहद नाद’। संभवतः इन्हीं क्षणों में काव्य-मोती उनके हाथ लगते हैं।
कवि होने के साथ-साथ कान्ता घिल्डियाल एक सफल नाटककार भी हैं। अपने गढ़वाली नाटक ‘दुर्पदा की लाज’ जिसके रंग जगत में अनेक मंचन किए जा चुके हैं से उन्होंने अच्छी ख्याति अर्जित की है। नाटक दृश्य विधा है जबकि कविता श्रव्य किन्तु उनके नाटककार होने का लाभ उनकी कविताओं को भी मिला है। पहाड़ , नदी , झरना , प्रेम आदि का वह ऐसा बिंब उकेरतीं हैं कि आँखों के सामने हू-ब-हू दृश्य उपस्थित हो जाता है। उनका भाषा पर अच्छा अधिकार है। अभिधा , लक्षणा शब्दशक्तियों का सौंदर्य दृष्टिगोचर होता है तथा प्रतीकों के प्रयोग से भाषा का सौंदर्य बढ़ गया है।
भाव विस्तार एवं शिल्प की सघन बुनावट की दृष्टि से प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ सुधी सहृदयों का ध्यान अवश्य आकृष्ट करेंगी। मैं कान्ता घिल्डियाल के उज्ज्वल , रचनात्मक भविष्य की कामना करती हूँ।