कुमाऊँनी होली में ब्रह्मानन्द की अनुभूति… डेढ़ से दो माह चलती है होली.. जानिए भारती पांडे के साथ
भारती पाण्डे
10, अरावली एंक्लेव,
जीएमएस रोड कांवली, देहारादून, उत्तराखंड
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-होली पौष की कड़कड़ाती ठंड में अल्मोड़ा में होली शुरू हुई। पौष में अध्यात्म-भक्ति की होली में विष्णु के दश अवतारों से संबद्ध प्रसंगों का गायन किया जाता है।
-“भव भंजन गुण गाऊँ में अपने राम को रिझाऊँ।“
– वन को चले दोनों भाई उन्हें समझाओ री माई ।“
-कह दिजो रघुनाथ भरत से कह दिजो।‘’
श्रवण सुनत कट जात पाप जहाँ सीता राम खेलें होली।“
पहाड़ और प्रवासी होल्यारों की बैठकों में अध्यात्म-भक्ति के साथ प्रकृति, शृंगार, संयोग-वियोग, आशा, प्रतीक्षा, उल्हानों, तानों और प्रीत की होली जब सुर-लय-ताल के साथ गीत रचनाएं प्रस्तुत की जाती हैं, तब आनंदानुभूति सभी को विभोर तो करती ही है, आत्मा से परमात्मा का मिलन सेतु बना वातावरण परमानंद प्रीत जगाती है।
पौष के प्रथम रविवार से छलड़ी के अगले दिन द्वितीया को होली का समापन टीके के दिन होती है। डेढ़ से दो माह तक चलने वाली होली का सौंदर्य नित परवान चढ़ता है।
दरअसल, चरणबद्ध होली गीतों की अपनी बानगी, अपना बाँकपन है।
होली पौष की कड़कड़ाती ठंड में अल्मोड़ा में होली शुरू हुई। पौष में अध्यात्म-भक्ति की होली में विष्णु के दश अवतारों से संबद्ध प्रसंगों का गायन किया जाता है। विष्णुपदी होली गायन में वामन, श्रीराम-कृष्ण, नरसिंह आदि के अवतार की साथ गज और ग्राह, सुदामा-कृष्णमैत्री, राधा कृष्ण लीला, सीता-राम-विवाह, राम-वन गमन, महाभारत–प्रसंग गायन प्रचलन में हैं।
वामन तथा राम विवाह की होली-
-वामन अवतार– “का सुख सोहे रंग महल में, का सुख खेलें होली लला/सौ गायन को दान दियो है, एक गाये की चूक लला/राजा बलि ने यज्ञ कियो है, एक गाये की चूक लला/राजा बलि ने यज्ञ कियो है धूम्र उठो आसमान लला/वामन रूप धरो हरी ज्यू ने राजा बलि के द्वार खड़ो/भीतर कह दो राजा बलि से विप्र खड़ो तेरे द्वार लला/मांगले विप्र जो वर मांगे जो तेरी इच्छा होय लला/तीन चरण की जगह माँगूँ पर्ण कुटीर बनाऊँ लला/जो में मांगू न देवे राजा वचन अकारथ होय लला/जौं कुश तिल संकल्प कियो गढ़वा मुख में शुक्र लला/कुशा से छिद्र कियो हरिजी ने, शुक्र की आँख फूटी लला/एक चरण से धरती नापी दूजा गयो आसमान लला/तीजा चरण राजा बलि नापो,चरण गयो पाताल लला/नर नारायण देखन आए गरद उड़ो आसमान लला।“
-राम सीता विवाह–“आज सिया जी को ब्याह जनक पुर जाना है/देश देश के भूपति आए राम लछिमन भारत शत्रुघ्न विश्वामित्र के साथ/शिव धनु खंडन प्रण भयो है, सब भूपति लज्जित होए/रघुनाथ ने शिव धनु तोड़ा, पुरवाशी भये आनंद …।
-कृष्ण-सुदामा की भावपूर्ण होली-“श्याम मुरारी के दर्शन को जब विप्र सुदामा आए रहे/विप्र सुदामा द्वार खड़े हैं /पुछत हैं कहाँ हैं हरि/द्वारपाल ने खबर जो दीनी, द्वार खड़े हैं विप्र हरि/बालापन के मित्र हमारे रोको नहीं क्षण मात्र हरि…।”
कड़ाके की शीत वसंत ऋतु आते आते तक गुनगुनी होने लगती है। पुष्प–कली मुस्कुराने, पंछी चहचहाने लगते हैं। वसंतागमन के साथ अध्यात्म-होली के रंग में प्रकृति भी शामिल हो जाती है। वसंत पंचमी से ऋतु सौन्दर्य का मोहक वर्णन होली गीतों में सम्मिलित किये जाते हैं–
“आयो नवल वसंत सखि ऋतु राज कहाए/पुष्प कली सब फूलन लगे फूल ही फूल सुहाए, कामिनी के मन मंजरी फूले,उन बीच श्याम सोहाए।“
वसंत पंचमी के बाद शिवरात्रि के दिन से होली का दूसरा दौर शुरू होता है।शिव से होली खेलने का आग्रह-“होली आज खेलो शिव आई बसंत बहार/बैल सवारी शिव त्रिपुरारी पार्वती के संग/अक्षत चन्दन बेल की पाती, शिवजी के माथे धरो।“तभी से रात को समूहिक बैठ होली आयोजन शुरू होते हैं।
शिवरात्रि के बाद आष्टमी से होलाष्टक शुरू होते हैं। देवी के मंदिर में गोल घेरे में नृत्य करते हुये देवी दर्शन की कामना की जाती है। -“देवी के द्वारे गाएँ बजाएँ, ताथैया ताथैया होय/अम्बे धन तेरो/खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर दर्शन देदो माय …/हरिया पीपल द्वारे सोहे,वट सोहे पिछवाड़ …. ।“ होलाष्टक के बाद आँवल की एकादशी पर कपड़ो पर रंग छिड़क कर चीर बंधन के बाद फिर मंदिरों, हर घर-आँगन में जाकर चीर गाया जाता है– “कोएऊ बांधे चीर हो रघु नन्दन राजा,कोएऊ खेले फाग हो…”
एकादशी से अध्यात्म-भक्ति, ऋतु, संयोग-वियोग, सौंदर्य-श्रिंगार आदि मिलीजुली होली दिन रात गाई जाती हैं। राम सीता की होली खेलने का प्रसंग हो या सीता का अशोक वाटिका की परिस्थिति का चित्र प्रस्तुत करती होली– “गई गई असुर तेरी नार मंदोदरी सिया मिलन गई बागा में/कौन राजा की बेटी कहिए,राजा घर ब्याई/राजा जनक की बेटी कहिए, राजा दशरथ घर ब्याही/कौन कुँवर की परम सुंदरी, कौन यहाँ ले आए/कुँवर राम की परम सुंदरी,आसुर यहाँ ले आए/ षड़रस भोजन थाल में लाई/ लेहो सीता भोजन कर हो/बनजाओ लंका नार/न खाऊँ मैं षड़रस भोजन/ना बनूँ लंका नार/मैं जो सीता सत्य की कहिहों/करूँ असुर कुल नाश/”
कुमाऊँ में महिलाओं की बैठ होली का तिलस्म आज भी पहाड़ और प्रवासी परिवारों में कायम है।
सामूहिक समवेत स्वर में अध्यात्म-भक्ति की शास्त्रीय पुट लिए होली गीतों का खुमार सभी को झूमाए रखता है। इनमें चार चाँद लगाते हैं श्रिंगार, ऋतु- संदर्भ, संयोग–वियोग-मिलन, स्वांग, छेड़-छाड़ के सरस गीत। मंद व तीव्र लय,रागों में निबद्ध गीतों की बानगी सुनते ही बनती है- “करले सोलह शिंगार राधिका तेरे आंगना होली आय रही। शीश पे टीका अधिक विराजे,बैंदा हो तो पहन राधिका तेरे आंगना होली…।”
-“सैयां साड़ी हमारी रंगाई क्यों न दे, सैयां जी की पगड़ी हमरी चुनरिया एक ही रंग में रंगाई क्यों न दे/सैयां जी को सावन हमरो फगुनवा एक ही माह में मनाई क्यों न दे… ।“
-“हरा पंख मुख लाल सुवा बोलिया झन बोले बागा में/कौन दिशा से बादल रेखा/कौन दिशा घनघोर सुवा..। “
“होली खेलन आये श्याम,श्याम को रंग मैं बोरो जी/हरे बांस की बांसुरिया वाकों तोड़ मरोड़ो जी …।“
“रसिया को नार बनाओ रे होली में। ”
-“तुम कहाँ थे कन्हाइ रात मोहे नींद न आयी। ”
ब्रज में हरी धूम मचाई श्याम कैसी होली मचाई/इत से आई सुघड़ राधिका उत से कुँवर कन्हाइ/हिलमिल फाग परस्पर खेलें शोभा बरनी न जाये..।“
होली के रंग में सराबोर होल्यारों का आनंद होली में सम्मिलित सभी को अध्यात्म भक्ति रंग के साथ परमानंद से जोड़ देते हैं। ऐसि खुमारी, उल्लास का प्रभाव होल्यारों में अहं ब्रह्मास्मि का भाव भर देती है कि घर परिवार जनों से पहले देवों को दीर्घायु का आशीष देकर होली सम्पन्न कि जाती है।
“बरस दिवाली बरसे फाग,हो हो होलक रे
जो भागी जीवे खेलें फाग
केसरी रंग लागो भिगावन को,सांवरी रंग लागो भिगावन को
गणपति जीवें लाख बरिशे, ब्रम्हा-विष्णु जीवें लाख बरिशे
उनकी नारी रंग भरी।“
इस प्रकार बैठ होली में आशीर्वाद और बधाई देने का चलन है। राग भैरवी में निबद्ध आशीष गीत- “मुबारक मंजरी फूलों भरी,ऐसि होली खेलें जनाबे अलि, बरादरी में रंग बनो है/कुंजन बीच मची होरी/सबको मुबारक हो ये होली।“मुबारकबाद के साथ होली सम्पन्न होती है।