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चर्चित कथाकार कुसुम भट्ट की कहानी.. सफर खूबसूरत हो

कुसुम भट्ट
देहरादून, उत्तराखंड


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कहानी…सफर खूबसूरत हो

भय की सर्द लहर के बीच में झुरझुरी उठी। अनजानी जगह, अंधेरी रात, चांद का कहीं पता नहीं। अमावस है शायद। सुनसान शहर और वह एकदम अकेली! उसने सिहरते हुए देखा, देह का जो चोला उन सब ने पहना था उसकी तरह किसी का भी नहीं था। गोया किसी तीसरी दुनिया के वाशिंदे थे जो कभी-कभार मूवी या सीरियल में दिखाई पड़ते थे जिनसे अपना कोई संबंध नहीं होता। बस शंका और भय की नागफनी उगा करती है। वह कुछ कहना चाहती है पर जीभ तालू से चिपक रही है। इस कदर डरावना अहसास जिंदगी में पहली मर्तबा हो रहा था। भूख लगी थी सो चली आई। तवे-सी रंगत और चुहिया-सी काया वाली निर्मला दीवान के आदेश पर बच्चे की मानिन्द चली आई थी।

पेट की भूख से बड़ी कोई भूख नहीं, यही समझ में आया था। निर्मला दीवान के रूखे वाक्यों के पत्थर सब पर पड़े थे। ‘यहां किसी के लिए खाना नहीं आएगा। वहीं होटल चलना पड़ेगा।’ थोड़ी दूर खड़ी अंधेरे में उसका चेहरा रात के साथ विलय हो गया था। सिर्फ सफेद खादी की साड़ी चमक रही थी। कालिंदी सिंह बुदबुदाई थी, ‘अपने घर बुलाकर भूखा मारेगी कमबख्त!’ कालिंदी भैंस की तरह चारपाई पर पसरी थी, बत्ती गुल थी, एकदम अंधेरा! कालिंदी रागिनी की रूम पार्टनर एकाएक बीमार हो गई। बड़ी आह-ऊह के साथ टांगें दबा रही थी रागिनी। ‘प्लीज गिव मी वन टेबलेट प्लीज!’ महिला विकास मंत्रालय की गजटेड ऑफिसर कालिंदी व्यवस्था पर तंज कस रही थी। उसकी पीड़ा का अहसास रागिनी को था पर दवा इस अंधेरी रात में कहां मिलेगी?

भूख बिल्ली की मानिंद उछल रही थी। रागिनी सीढ़ियां चढ़कर तीसरी मंजिल से जयपुर की उमा से दवाई लाकर कालिंदी को पकड़ाकर धम्म बैठ गई। मेरी भी टांगें दुख रही हैं। कालिंदी कहने लगी, ‘प्लीज गो अवे। मेरे लिए बंधवा लेना, बाद में खत्म हो गया तो?’ होने को सीता का मायका जनकपुर है पर कूड़े के ढेर जगह-जगह गरीबी, भुखमरी, छोटे-छोटे बच्चे कामगार! आसपास दूर तक चाय की गुमटी भी नहीं कि कुछ खाकर भूख मिटा सकें। जितना उल्लास आमंत्रण पत्र मिलने पर हुआ था, यहां आकर सूख गया था। रवि ने सलाह दी थी, ‘कुछ नहीं है वहां रागिनी। गरीबी और भुखमरी इतनी कि मजदूरी करने यहां पहाड़ में आते हैं बेचारे।’

‘कुछ भी हो, दिखता तो खूबसूरत है न? फॉरेन कंट्री है भई।’ हंसते हुए रवि को देखा, जैसे मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हों। रवि ने भी उसे उसी दृष्टि से मुस्कराते हुए देखा था। वह तो जाने पर पता चलेगा स्त्री। जब हमारे देश के कवियों को वे श्रद्धा से सम्मानित कर रहे हैं, तो जाना बनता है न? तुम क्या समझोगे पुरस्कृत होने का सुख? मन में बोली थी। अरे, ईंट-पत्थर के व्यापारी। अभी वह सोच ही रही थी कि मोबाइल पर मैसेज चमका सहयात्री स्टेशन पर मिलूंगी। मैं तराना खुशबू हास्य व्यंग्य की कविताएं मंचों पर गाती हूं। लिस्ट में उसका नाम देख कर तराना पुलक से भर उठी थी। फिर दो दिन बाद वाट्सएप किया, ‘आपको कष्ट करने की जरूरत नहीं जी। रास्ते के लिए खाना मैं बनवा लूंगी। आप अपनी पसंद की सूची बना लेना जी।’
रागिनी भीतर से भीग उठी। डायरी में लिखा, ‘शब्द एक पुल है जिसमें भावनाओं के तार जुड़े हैं, विश्वास की ईंट लगी हैं। पुल के नीचे अपनेपन की नदी छलछलाती बह रही है। उस पार हसीन प्यारे रिश्ते हैं, मित्रता के, दोस्ती के, इंसानियत के। शब्द तुम्हें प्रणाम।’ भीतर भावनाओं का ज्वार उठता और खुशी से आंखें भीग उठतीं। डी पी में गुलाबी चेहरा और काले घुंघराले बाल ही दिखे थे। इतने पर किसी के व्यक्तित्व का पता लगाना मुमकिन नहीं था। होठों पर खिलंदड़ी मुस्कान। कुल मिला कर प्यारी छवि रागिनी के जेहन में अंकित हो चुकी थी। रागिनी हवा में तैरने लगी थी, ‘सफर खूबसूरत हो।’ इससे बढ़कर कोई सुख हो सकता है भला?

रवि जनशताब्दी में दिल्ली तक छोड़ने को तैयार हो गए थे। वे पहले पहुंच चुके थे। रागिनी तराना के मैसेज पढ़ रही थी, ‘पंजाबी खाना पसंद है आपको?’
‘कुछ तो मुझे भी बनाना चाहिए कि नहीं।’ उसने लिखा था, खाना तो खाना है तराना जी, किसी भी प्रांत का हो। मैं इडली बना लूंगी।’ ‘मैंने पंजाबी छोले, पूड़ी, हलवा बनाए हैं। ठीक है, जो आपको अच्छा लगे। वैसे ट्रेन में भी खाना आता ही है।’ छोले, हलवा की याद आते ही रागिनी को प्यास महसूस हुई। एकाएक फोन बजा, ‘मेरी रेड कलर की ड्रेस है जी।’
कैसे पहचानूंगी आपको? वह मन ही मन बोली और कूलर में पानी भरने लगी। तभी एक रिक्शा पास आया। रागिनी मुड़ी, उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। क्या खयालों में देख लिया? तराना खुशबू!

वे रिक्शा से बमुश्किल उतरीं, ‘मैं ही हूं भई तराना, आपकी सहयात्री।’ सफर खूबसूरत हो, रागिनी ने सुना था और हाथिनी काया को लदबद रिक्शे से उतर कर आते देखा था। इस काया पर रेड ड्रेस खिल रही थी। तभी भीतर वह दूसरी चिहुंकी थी, ‘निगेटिव क्यों सोचती हो तुम रागिनी? मन के आगे देह का सौंदर्य क्या मायने रखता है भला?’ रवि ने कवयित्री के लिए ससम्मान बेंच की तीनों सीटें छोड़ दीं थी। ‘मैं कुछ सामान लेकर आता हूं।’ रवि को भी शायद घुटन होने लगी थी, जब खुशबू तराना ने आगे से बंकर की तरह रास्ता रोक लिया था। ‘अरे सर बैठिए न, मेरे पास खाने-पीने का भंडार है।’ वह रवि को खाना परोसने लगी। ‘खट्टे छोले हैं, अच्छे लगेंगे आपको।’

रवि रागिनी को देखने लगे थे। ‘अब ले लो रवि। इतने प्रेम से परोस रही हैं।’ इशारे से रागिनी ने रवि को कहा। इच्छा नहीं, फिर भी थाम ली प्लेट? रवि को उसके सिवा सबको अपनी मासूमियत (छद्म) का विश्वास देकर लगता था कि रागिनी को हरा दिया है। ‘देखो दुनिया वालों मैं कितना भोला-भाला हूं!’, जबकि असलियत कुछ और थी। एक पूड़ी बमुश्किल खाने के बाद रवि ने रागिनी को देखा था असहाय दृष्टि से। तराना ने खुद भी खाते हुए रवि को देखा था। ‘खाइए सर, इतने खाने से मेरे जैसे नहीं न हो जाएंगे!’ रागिनी ने कुछ भी खाने से इंकार कर दिया था। रवि खाना छोड़ आगे निकले। तराना डिब्बे संभालने लगी। ट्रेन पटरी पर लग चुकी थी। रवि ने चिप्स-बिस्कुट का पैकेट पकड़ा कर विदा लेते हुए कहा, ‘सफर खूबसूरत हो।’

यह रागिनी का तकिया कलाम था, जो रवि ने व्यंग्य से शायद उछाला था। तराना बचा हुआ खाना परोसने में लग गई थी। रागिनी उनींदी थी। उसने चेहरे से कंबल हटाया था। अधमुंदी आंखें एक दुबले गोरे खिचड़ी दाढ़ी और लंबे खिचड़ी बालों वाले सज्जन को देखने लगी थी। वे ऊंचे स्वर में गा रहे थे, ‘प्रेम की अलख जगाओ रे…।’ उनके कंधे पर झोला था जिससे निकाल कर अपनी कविता पुस्तक लोगों को बांट रहे थे। वाह! वाह! तराना खाते-खाते दाद देने लगी। धनभाग हमारे काबिल साहेब, आप भी इसी डिब्बे में हुए। अरे, मोहतरमा आपका परिचय? फिर याद आया कि इनसे पहले भी मिल चुके हैं। ‘पहले आपके चरणों में प्रणाम कर लूं।’ उन्होंने लपक कर तराना के गोरे गुदाज पावों में सिर रख लिया। ‘आप मिल गईं मोहतरमा, सफर खूबसूरत हो गया।’ ‘अरे सर क्या करते हैं। छोड़िए मेरे पांवों को, पाप चढ़ाएंगे क्या?’ तराना उठने लगी। आप बैठिए, उसने जूठे हाथों से एक प्लेट में चार पूड़ी, छोले, अचार रख उन्हें दिया। काबिल कवि हड़बड़ा गए, ‘नहीं मोहतरमा, अभी भूख नहीं।’
‘अरे, कैसे भूख नहीं!’
‘अच्छा एक पूड़ी बस।’
काबिल कवि को खाने में रुचि नहीं थी। वे ऊपर की बर्थ पर चले गए और कविताएं सुनाने लगे। थोड़ी देर में तराना की आंखें बंद होने लगीं। वह सीट पर पसर गई। जाने कैसे उसका प्लाजो घुटने से ऊपर हो गया। काबिल कवि ने उसकी नंगी टांग का फोटो लेकर फेसबुक पर डाल दिया। नींद खुली, तो उसने मोबाइल खोला। फेसबुक पर अपनी नंगी टांग देख कर उसके होश उड़ गए।
‘ही… ही… ही…’ काबिल कवि हंसने लगे – सौंदर्य बोध मोहतरमा! ‘ही… ही… ही…।’

वह रुआंसी हो गई। डिलीट कीजिए जल्दी। उसकी आंखों में पानी भर आया और चेहरा धुंध से भर गया। काबिल कवि फिर हंसे, ‘लीजिए कर दिया, अब तो खुश?’ उन्होंने तराना को देखा। तराना ने पानी भरी भैंस के जैसी आंखें उन पर टिका दीं। आपसे यह उम्मीद नहीं थी काबिल साहेब। कवि नीचे आए और थोड़ी दूर पर खड़े लड़के से कॉफी मग लेकर तराना को पकड़ाते हुए ही ही ही हंसने लगे। ‘अब तो मूड दुरुस्त करिए मोहतरमा।’ तराना ने इंकार किया, तो कवि मुस्कराकर बोले, ‘ले लीजिए मोहतरमा, माफ भी कर दीजिए?’ तराना ने मग पकड़ा और पर्स खोलकर पैसे देने लगी। कवि ने उसे अनदेखा कर कूपे के सभी यात्रियों के लिए कॉफी मंगा ली। तराना ने 500 का नोट उनको देते हुए कहा था, ‘अब तक आपके बहुत पैसे खर्च हो गए। इसे रख लीजिए, कहीं ऐसा न हो कि लौटने के लिए भी कुछ न रहे।’ उन्होंने चुपचाप नोट रख लिया था।
सेमिनार समाप्त होने के बाद तराना को पटना में एक और सम्मान लेने जाना था। उसने रागिनी को भी साथ चलने को कहा था, पर रागिनी को कालिंदी का साथ मिल चुका था।

मोबाइल की रोशनी में वह गेस्ट हाउस से आधा मील दूर इस छोटे से होटल में खाना लेने आई, तो उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। शराब के नशे में काबिल कवि दूसरे कवियों से तराना की देह का अनावरण करते हुए अंगों पर अश्लील कविता कर रहे थे और सारे कवि चटकारे लेकर सुन रहे थे। गोया तराना की अनावृत देह उन सबके बीच पड़ी थी और वे सब भेड़िये उसके एक-एक अंग को स्वाद से चबा रहे थे! रागिनी के भीतर थरथराती चीख उठी पर भीतर ही बिला गई। उसने कंपकपी महसूस की। अगर वह थोड़ी देर रुकी तो…? उसके साथ भी…? उसने पैकेट उठाया और बाहर आई, तो अपनी आत्मा की चीख सुनाई दी। अब उसे खुद को रोकना मुश्किल लगा। अंधेरी सुनसान जगह पर वह जोर से चीखी और अपनी विवशता पर उसकी आंखों से आंसू छलक पड़े़।

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परिचय

कुसुम भट्ट उत्तराखंड की चर्चित कथाकार है। विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं सहित देश के सभी प्रमुख समाचार पत्रों में उनकी कहानियां प्रकाशित हुई हैं। उनके कई कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

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