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क्यूं न वीर शिरोमणि माधो सिंह को प्रकृति पुरुष की संज्ञा दे दें!

प्रकृति दिवस पर विशेष…

बात लगभग चार सौ साल पुरानी है। उस जमाने में उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में देश के लिए उत्सर्ग होने वाले वीरों की लंबी परंपरा रही थी। उन्हीं में से एक थे माधो सिंह। तिब्बत जाकर चीन के खिलाफ लड़ाई जीतने और भारत-चीन के बीच पहली बार सीमा निर्धारण का श्रेय कुछ इतिहासकारों ने उन्हें ही दिया है। वीर होने के साथ माधो सिंह इंजीनियरिंग कौशल के लिए भी याद किए जाते हैं। उनकी शानदार इंजीनियरिंग का नमूना है मलेथा की कूल। गढ़वाल क्षेत्र में कूल शब्द का प्रयोग नहर के लिए किया जाता है। मलेथा गांव गढ़वाल के श्रीनगर-देवप्रयाग के बीच बसा हुआ है। दूरी ज्यादा होने के बावजूद माधो सिंह मलेथा से ही रोज श्रीनगर दरबार आया-जाया करते थे।


एक दिन वे दरबार से थके-हारे घर लौटे तो भाभी ने उन्हें सूखी मंड़ुवे की रोटी नमक के गारे के साथ परोस दी। माधो सिंह ने पूछा- ‘मैं इतनी दूर से आ रहा हूं। कुछ तरकारी वगैरह नहीं है क्या?’
भाभी ने ताना मारा- ‘तुम्हारे ही गांव में बह रही हैं क्या पानी की नदियां? अन्न-धन, साग-पानी कुछ है नहीं! कैसे बनाऊं तरावट वाला भोजन?’


भोजन को लेकर माधो सिंह और उनकी भाभी के बीच काफी नोकझोंक हो गई। भाभी की बात माधो सिंह के दिल में चुभ गई। रात भर वे सो न सके। सोचने लगे कि अलकनंदा बहती तो है गांव के नीचे-नीचे, लेकिन उसे क्या पड़ी है जो वह ऊंचाई पर चढ़कर उनके गांव की प्यास बुझाने चली आए। गांव के दाएं चंद्रभागा नदी भी है, लेकिन उसका पानी भी गांव में नहीं आ सकता। बीच में पहाड़ जो है। सोचते-सोचते अचानक उनकी आंखों में चमक आ गई। सुबह वे चंद्रभागा से लगे पहाड़ पर पहुंच गए। कई-कई दिनों तक पहाड़ का निरीक्षण करते रहे। जांच-परख के बाद उन्होंने श्रीनगर दरबार जाकर राजा को पानी के संकट से जूझते अपने गांव की परेशानी बताई। चंद्रभागा का पानी गांव तक पहुंचाने की अपनी योजना भी बता दी। पहाड़ में सुरंग बनाकर नहर द्वारा चंद्रभागा का पानी गांव में पहुंचाने की उनकी योजना सुनकर दरबारियों ने उनका मजाक उड़ाया। राजा ने भी इसे अव्यवहारिक बताते हुए दरबारियों का ही पक्ष लिया।


माधो सिंह ने इस घोषणा के साथ दरबार से अवकाश लिया कि वे दरबार में तभी लौटेंगे जब चंद्रभागा नदी का पानी अपने गांव तक पहुंचाने में सफल हो जाएंगे। घर पहुंचकर उन्होंने अपनी योजना के बारे में गांव के लोगों से बात की। गांव वाले उनका मजाक उड़ाने में दरबारियों से भी दो कदम आगे निकले। दृढ़प्रतिज्ञ माधो सिंह ने अपनी पत्नी से कहा कि तुम पुत्र गजे सिंह का ध्यान रखना, मैं चंद्रभागा नदी का पानी गांव में लाने के बाद ही घर में कदम रखूंगा। कुदाल, गैंती, फावड़ा, बेलचा, सब्बल लेकर माधो सिंह निकल पड़े पहाड़ फतह करने। उनकी पत्नी ने भी उनका साथ दिया। यह देखकर लोगों ने सोचा कि माधो सिंह के प्रयासों का जो भी नतीजा हो, यह सब वे अपनी नहीं, गांव की भलाई के लिए ही तो कर रहे हैं। धीरे-धीरे गांव भी उनके साथ हो लिया। पुरुषों का हौसला बढ़ाने के लिए गांव की महिलाएं भी अपने गीतों के साथ वहां पहुंचने लगीं।
धीरे-धीरे सुरंग बनी। नहर भी तैयार हो गई। दुर्भाग्य से चंद्रभागा अपनी पूर्व राह से टस से मस न हुई। निराश, हताश लोगों को अब किसी चमत्कार की ही प्रतीक्षा थी। अपनी पथराई आंखों से वे चंद्रभागा की ओर टकटकी लगाए देख ही रहे थे कि एक अनहोनी हो गई। माधो सिंह का एकलौता पुत्र गजे सिंह सुरंग के द्वार पर खड़ा था कि एक बड़ा पत्थर उसके सिर पर आ गिरा। बालक गजे सिंह तत्काल कालकवलित हो गया। इस हृदयविदारक घटना से चंद्रभागा नदी ने भी जैसे अड़ियल रवैया छोड़कर सुरंग के रास्ते नहर में प्रवेश करने का निर्णय ले लिया। देखते-देखते सूखी नहर पानी से लबालब भरने लगी। गांव के लोग खुशी से झूम उठे। ऐसे कम ही मौके होते हैं जब ‘पहाड़ की जवानी और पानी’ पहाड़ के काम आते हों।


विषम भौगोलिक परिस्थितियों से संघर्ष कर उन्हें जीवन के अनुकूल बना लेना किसी युद्ध को जीतने से कम नहीं था। माधो सिंह अपनी इस अविश्वसनीय उपलब्धि के लिए अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बने। चीनी सैनिकों के माधो सिंह के नाम से थर-थर कांपने के किस्से तो इतिहास में दबे पड़े हैं, लेकिन उनके नाम को जीवित करती मलेथा की नहर और वहां के हरे-भरे खेत आज भी लहरा रहे हैं। माधो सिंह की कर्मठता और वीरता के गीत गढ़वाल के घर-घर में आज भी गाए जाते हैं। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में कई जगह उनके नाम के होर्डिंग लगे हैं।

मलेथा की अपनी एक हालिया यात्रा के दौरान वहां की कूल की अद्भुत इंजीनियरिंग, चंद्रभागा की धारा और गांव सहित उस पूरे क्षेत्र को हरा-भरा देखने के बाद मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों नहीं आज ‘प्रकृति दिवस’ के अवसर पर हम वीर शिरोमणि माधो सिंह को प्रकृति पुरुष की संज्ञा दे दें !
प्रतिभा की कलम से

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