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नीरज नैथानी… डूरंड लाइन व मैकमोहन लाइन की तरह ही है पहाड़ों में ओडु

नीरज नैथानी
रुड़की, उत्तराखंड
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ओडु

कई लोगों के लिए ओडु नया शब्द हो सकता है। जनाब, पहाड़ के खेतों में चिन्हांकन रूपी एक पत्थर होता है जो ओडु कहलाता है। यह एक ऐसा पत्थर होता है जो खेत या जमीन की सीमा रेखा बताता है। किसी खेत की मुण्डेर पर पत्थरों की एक सीधी लाइन होती है या संकेत मात्र के लिए एक ही पत्थर हो सकता है जो बताता है कि अमुक सीमा तक इस मालिक की जमीन है। आपसी सहमति से भूमि का बंटवारा कर लिया जाता है या जमीन किसी को बेची है तो ओडु बताता है कि इस सीमा तक अब जमीन तुम्हारी है।

यूं समझ लीजिए जैसे कि डूरंड लाइन, मैक मोहन लाइन दो देशों की भौगोलिक सीमाओं का विभाजन करती हैं वैसे ही पहाड़ी खेतों में ओडु लाइन भाई बंदों का बंटवारा इंगित करती हैं। यह ओडु लाइन जमीन के साथ आदमियों को भी सीमा में रखती थी। भई तुम वहां तक हल चलाओ… वहां तक फसल बोओ…. वहां तक जो चाहे करो…। लेकिन, कुछ दुष्ट‌प्रवृत्ति के रात के अंधेरे में जाकर ओडु खिसका देते। कुछ दिनों बाद जब अगले भाई की नजर पड़ती कि खेत देखने में छोटा नजर आ रहा है तो वह नजर की पैमाइश से ही जान लेता कि ओडु खिसकाया गया है। फिर ओडु को लेकर बहस छिड़ती, गाली-गलौज चलती, लड़ाई-झगड़ा होता।

कभी-कभी दोनों पक्ष एक-दूसरे को इतनी जोर-जोर से गालियां देते कि सारा गांव‌ सुन रहा होता। अगला बहस करता तूने राजीनामा के तहत अपने हाथ से ओडु रखा था अब लालच में आकर मुकर रहा है। दूसरा भी भाई भी पीछे हटने को कतई तैयार ना होता। हां, अपने हाथ से रखा था तभी तो कह रहा हूं कि वहां रखा था, अब ये ओडु इधर कैसे आ गया।

तो साहब ये ओडु लड़ाई रुकवाते भी, तो करवाते भी थे। जब दो भाई या पड़ोसी लड़ते थे कि ओडु यहां नहीं वहां था तो उस समय ये ओडु चुपचाप पड़ा सोचता था, मैं तो चाहें यहां रहूं या वहां रहूं मुझ पर क्या फर्क पड़ता है। लेकिन, मेरे जरा सा इधर या उधर खिसक जाने पर तुम मरने मारने पर उतारू हो यह बात ठीक नहीं है भई। न जाने कितनी बार पटवारी, अमीन, लेखपाल या बात बहुत बढ़ जाने पर कानूनगो तक इस ओडु को देखकर खाता-खतौनी से जांच करके बताते थे कि ओडु यहां सही‌ है। लेकिन, लाख टके की बात यह है जिन लोगों ने ओडु का सम्मान किया यानी कि जो लाइन ओडु ने बता दी उसकी दूसरी ओर बालिश्त भर भी नजर नहीं उठाई और न ही जरा सा लालच किया उनका जीवन आपसी भाई-चारे का निर्वाह कर सुखमय व्यतीत हुआ और जिसने अपने बाहुबल का प्रयोग करते हुए या पाद प्रहार से ओडु को इधर से उधर धकिया कर अपमान किया तो निर्जीव ओडु की ऐसी हाय लगी कि वह और उसकी पुश्तें जिंदगी भर चैन से न खा पायीं।

खैर… अब तो लड़ने वाले दोनों पक्ष गांव से पलायन कर मैदान में जा बसे हैं। हां ओडु वहीं के वहीं हैं तथा हंसते हैं आदमी की जात पर कि देखो जिस जमीन की खातिर लड़ाई, झगड़ा, पुलिस-थाना, कोर्ट-कचहरी, मुकदमा करते रहे उसे ही छोड़ कर चलते बने।सच तो यह है कि उन्होंने क्या छोड़ा ओडु को ओडु ने ही नाराज होकर उनसे उनका स्थायी अड्डा छुड़वा दिया।

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