चलो चले गांव की ओर… आठवीं किश्त… गुरु जी थोड़ा और कुटाई-पिटाई करते तो मैं ज्वाइंट डायरेक्टर नहीं डायरेक्टर बनता
नीरज नैथानी
रुड़की, उत्तराखंड
चलो चले गांव की ओर….. गतांक से आगे… आठवीं किश्त
भुळा वो भी क्या दिन थे गांव में, गरीबी तो थी पर रिश्तों की अमीरी भी थी। हम सभी मिलजुलकर रहते थे। खेलना, कूदना, लफंडरी, लड़ाई झगड़ सब होता था पर प्यार मुहब्बत में भी कोई कमी न थी। तू तो मुझसे दो क्लास पीछे था बोडा ने मन्ना से मुखातिब होकर कहा। अब्बे छठी सातवीं तक हम साथ पढ़े हैं तू भूल गया रे, मैं एक बार सातवीं में लुढ़क गया तू आगे बढ़ गया, फिर दूसरी बार मैं दसवीं मे भी फेल हुआ तब तू दो क्लास आगे हो गया मन्ना ने बचपन के पन्ने पलटते हुए कहा। क्या दिन थे यार गुरु जी के लिए लौकी ले जाना, हरी सब्जी ले जाना, कभी-कभी मां घी का डिब्बा भी देती भूरा ने तीसरे पैग को दम्म से हलक में उतारते हुए यादों का सीन खींचा।
वो दाणि गुरु जी तो अब क्या ही बचे होंगे, जब हम ही इतना बूढ़े हो गये हैं, बोडा ने सेब की फांक पर चटनी लगाते हुए अनुमान लगाने की कोशिश की। और वो छंगू गुरु जी उनकी तो बौत मार खायी है हमने, मन्ना ने स्मृतियों को ताजा करने की कोशिश करते हुए कहा। यार, हमीं से कहते थे डालि से सोंटी तोड़कर ला और फिर हमारा ही तबला बजाते था, एक सोटी टूटी तो दूसरी फिर तीसरी पूरा बदन लाल कर देते थे मारते-मारते। याद है जोर से कान मरोड़ते हुए कहते थे बेट्टा पढ़ लिखकर कुछ बन जाओगे तो ये उमेठन भी याद रखोगे और मुझे भी.. बताते बताते मन्ना की आंख में आंसू भर आए।
मैं तो लाख कोशिश करके भी सत्रह से ऊपर के पहाड़े कभी भी याद ही नहीं कर पाया। उन्नीस इक्कम उन्नीस, उन्नीस दूनी अड़तीस, उन्नीस तियां सतत्वान, उन्नीस चौकु…. उन्नीस चौकु…. उन्नीस…। हां बेट्टा उन्नीस चौकु से आगे याद नहीं आ रहा होगा फिर दे दना दन, दे दनान सोट्टी… गुरु जी मर गया… हाय गुरु जी मर गया.. आंखों से आंसू तर-तर बहते पर छंगु गुरु जी का दिल जरा न पसीजता, दिन्ना ने स्कूली दिनों को याद कर सिरहन महसूस की। बेट्टा आज तेरा वो बंडल बनाऊंगा कि पहाड़े तो क्या तुझे सारे देवता, दादा-परदादा सब याद आएंगे… कहते हुए हथेली पर जब गुरु जी सट्टाक-सट्टाक बेंत मारते तो हम मुठ्ठी में फूंक मारकर गर्म करते हाथ को नरू ने अपनी हथेली निहारते हुए कहा।
अब्बे याद आया बोडा ने खीरे का टुकड़ा चबाते हुए कहा, एक बार शादी में देहरादून जाना हुआ। वेडिंग प्वाइंट में खाना खाते समय इत्तफाक से वहां गुरु जी मिल गए। इत्ते सालों बाद भी गुरु जी का वही साधारण परिधान कुर्ता, पजामा, फतुई व पैरों में सामान्य से जूते। गुरु जी को सादर चरण स्पर्श करते हुए मुझे स्कूली दिनों की याद ताजा हो गयी। गुरु जी का विद्यालय व बच्चों के प्रति समर्पण, गुरु जी की सादगी, गुरु जी की जीवन शैली सभी मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगे।
उन दिनों की मास्टरी याद कर मुझे आज पीड़ा पंहुचती है, मैंने तुम लोगों की बहुत पिटाई की है रे.. कहते हुए गुरु जी ने मुझे सीने से लगा लिया, उनकी आंखों की पोरें नम हो गयी लगती थीं। मैं भी उनसे लिपट कर भावुक हो गया। बहुत रोकने पर भी मेरे आंख से आंसुओं का सैलाब बहना बंद न हुआ।
तू बहुत बड़ा हो गया रे वे मुझे छाती से चिपटाए हुए कांपते ओंठों से बोले। भावनाओं के थपेड़ों में बहते सजल आंखों व कंपित ओंठों से मैंने कहा गुरु जी आपने कुछ सोंटी कम मार दी, मैं पीसीएस एलाइड ही निकाल पाया, आप नरमी न दिखाकर थोड़ा और कुटाई-पिटाई कर देते तो मैं आज ज्वाइंट डायरेक्टर नहीं बल्कि डायरेक्टर बनता।
सार्वजनिक स्थल पर गुरु जी को सादर चरण स्पर्श करना व लिपट कर अश्रु बहाना मेरी पत्नी व बेटे को जरा भी नहीं भाया। घर आकर दोनों मेरे ऊपर गरजने लगे। पब्लिक प्लेस में और वह भी वेडिंग प्वाइंट में जहां एक से बढ़कर एक डिगनटीज प्रजेंट थीं, वहां सीन करने की क्या जरूरत थी, दोनो मेरे साथ तकरार करने लगे। तुम दोनों नहीं समझोगे जाकर सो जाओ मुझे तो आज नींद क्या ही आ पाएगी, मैं कपड़े बदलते हुए सोच रहा था। वास्तव में मैं जो कुछ भी हूं जितना भी हूं वह सब उनकी कृपा से ही हूं। उन दिनों गुरु जी स्कूल में ही डेरा जमाकर रहते थे, कभी-कभार घर जाते थे आज उल्टा हो गया है यार।