नीरज नैथानी….. कुशला फूफू के आ जाने का मतलब था जच्चा-बच्चा की खैरियत
नीरज नैथानी
रुड़की, उत्तराखंड
मेरे गांव में बीमारियों का इलाज
साथियों पिछली बार मैंने आपको बताया कि जब हमारे गांव में सड़क नहीं पहुंची थी तो किसी बीमार को डाक्टर के पास दिखाने के लिए पिनस पर ले जाते थे। लेकिन, मैं जिक्र करना भूल गया कि डाक्टर के पास ले जाने की नौबत ही बहुत कम आती थी। अब आप इसका यह मतलब कतई न निकालिएगा कि हमारे गांव में कोई बीमार ही नहीं पड़ता था।
गाहे-बगाहे मौसम का मिजाज बदलने पर या बदपरहेजी होने की वजह से लोगों की तवियत बिगड़ा ही करती थी। उस जमाने में गांव में न तो राजकीय प्राथमिक चिकित्सा केंद्र (पीएचसी), न डाक्टर, न कम्पाउंडर और न ही कोई मेडिकल स्टोर हुआ करता था। लेकिन, हर बीमारी के इलाज के पारम्परिक तरीके जरूर हुआ करते थे। मसलन, किसी घर में बहू को प्रसव होना है तो गांव की कुशला फूफू की सेवाएं ली जाती थीं। साठ-पैंसठ के आसपास की उम्र की कुशला फूफू पास के ही गांव में व्याही थीं। उन तक खबर पहुंची नहीं कि वे थोड़ी देर में हाजिर, यह थी उनकी मदद के लिए तत्परता.. और कुशला फूफू के आ जाने का मतलब होता था हिफाजती जचकी के साथ जच्चा-बच्चा की खैरियत।
उस समय न तो व्यावसायिक मैटरनिटी होम और न ही आजकल जैसे सीजेरिअन केस कभी नहीं सुनाई देते थे और न ही वार्ड ब्वाय,नर्स से लेकर डाक्टर तक लूट-खसूट मचाने वाले। इसी तरह खेल-कूद में या आते जाते कहीं पैर फिसल गया, कोई पेड़ से गिर गया चोट लग गयी तो अरण्डी के पत्तों पर तेल हल्दी लगाकर बांध दिया, दूध में हल्दी मिलाकर पीने को दे दी और हो गया इलाज। किसी का सिर गर्मी से चटका जा रहा है तो कटोरी में सरसों तेल लेकर उसमें थोड़ा ठण्डा पानी मिलाकर फेंट दिया फिर उसे तोंदी में लगा दिया साथ में चम्पी मालिश कर दी अगला थोड़ी देर में चंगा। किसी को सूखी खांसी ने परेशान कर रखा है तो गुड़, काली मिर्च, अदरख को मिलाकर गर्म किया फिर मिलाया उसमें कार्तिक महीने वाला शुद्ध शहद और दे दिया चाटने को समय-समय पर मुंह में मुलैठी भी चबाने को दे दी… खांसी सिरे से गायब।
किसी के मुंह में छाले हो गए तो अमरूद के पत्ते चबाने को दे दिए दूसरे दिन छाले गायब। किसी को पेट दर्द है, पथरी का अनुमान हुआ तो पत्थर चटुआ दे दिया या एक-दो हफ्ते लगातार गौत की दाल का पानी पिला दिया पथरी चूर-चूर होकर बाहर। किसी को सांप ने डस लिया, अबे दौड़कर भगतू दा को बुला लाओ। भगतू दा ने आते ही डसे आदमी की पीठ पर थाली कसी कुछ मंत्र बुदबुदाए, कंकड़ फेकें व जहर उतार दिया। (मैं जानता हूं कि मेरे द्वारा अपनी खुली आंखों से देखे गए या अपने परिवार के किसी खास आदमी से सुने गए ऐसे किस्सों को आजकल के साइंस दा बकवास कहकर खारिज करेंगे)
लेकिन, किसी के खारिज कर देने से हकीकत नहीं बदल जाती। पहले गांवों में भई ऐसे ही इलाज होता था।
आपको किस्सा बताता हूं गांव की लबरा काकी को बहुत तेज दांत दर्द हुआ। बुलाया गया बैसाखू औझी को। आते ही उसने जमीन पर बैठते हुए मिट्टी साफ की। फिर कील से आड़ी तिरछी रेखाओं की आकृति बनायी, झोले से एक छोटी हथौड़ी निकाल कर जमीन पर कील रखते हुए कुछ मंत्र फूंके और मारी एक चोट हथौड़ी की कील पर बोला, एक। बोल ,कितने साल को किलाना है दस्स को और जोर से एक और हथौड़ी की चोट की दस्स… बोल जल्दी बोल न, कितने साल को किलाना है बीस और ये ल्ले बीस कहते हुए हवा में और ऊपर तक हथौड़ी उठाकर कील टमकाई हो गया बीस। ज्जा अब बीस साल तक कुछ नहीं होगा। मैं ही क्या घर परिवार के सभी गवाह थे कि दांत दर्द से मरी जा रही लबरा काकी जरा सी देर में पुरानी रंगत में लौटकर गांव वालों पर बड़बड़ करती नजर आयी।
ऐसे ही नस चढ़ने पर या मोच आ जाने पर गांव की शिब्बी बोडी ताले गर्म कर लगाती। ये कर्ची जैसी आकृति के लोहे के बने छोटे से धातु उपकरण होते थे। इन्हें आग में तचाकर जब बोडी दर्द की जगह पर सट्ट से लगाकर कहती बता, और कहां दर्द हो रहा है तो अगला उई मां चिल्लाते हुए कहता कहीं नहीं हो रहा मैं ठीक हो गया। शिब्बी बोडी आग मे ताले को तचाते हुए पूछती बता न और कहां दर्द हो रहा है तो नस चढ़ने के कारण लचक-लचक कर चल रहा भाई लपांग मार कर दौड़ निकलता। साथ में चिल्लाता जाता मैं ठीक हो गया…. मैं बिल्कुल ठीक हो गया…।
एक बार की बात है मुक्की मामा हमारे गांव आया हुआ था अपनी बहिन के पास। पंधेरे के पास वाले आम बगीचे में कई पेड़ों पर चढ़कर डालियां हिला हिलाकर बेहिसाब आम टपकाए। खूब खिलाए सभी को और खुद भी बेहिसाब चूस डाले। अगले दिन लगे दस्त तो पंधेरे के पास की झाड़ियों में जाना आना लगा रहा बिचारे का दिनभर। चला फिर घर में उसका देसी इलाज। आधी गिलास में चाय व आधा पानी मिलाकर, गुदा द्वार में घी लगाकर। इसी प्रकार डकार पर डकार ले रहे को दिया गया अजवायन का फंक्का। एक बार दयमंती दादी के नाती को भयंकर पीलिया हुआ, गांव में ही इलाज कर ठीक कर दिया गया उसको नीम पत्ती से झाड़कर। अलावा इसके हमारे गांव के बड़े बूढ़ों को जंगल की अनेक जड़ी बूटियों का ज्ञान था। वज्रदंती, जंबू, चोरू, कपूर कचरी, कुटकी, कूठ, जटामांसी, केदार जड़ी जैसी औषधीय गुणों से युक्त अनेक वनस्पतियों जड़ी-बूटियों से फूल-पत्तियों के अर्क से दाद खुजली, मकड़ा, त्वचा, एलेर्जी व तमाम अन्य बीमारियों का इलाज करते थे।
कान दर्द, पेट दर्द, कमर दर्द, हाथ पैरों में दर्द आदि के निवारण के लिए तुलसी, लौंग, अदरख, मेथी, लहसुन जैसी चीजों से कई प्रकार के इलाज किए जाते थे। अलावा इसके बीमारी पर बीमारी लगी हैं और परिवार की तकलीफें कम होने का नाम नहीं ले रहीं तो बुलाते थे पंडित को। वह बताता था कि नागरज्जा का दोष है या साढ़े सत्ती लगी है, पैर का शनीचर है या राहू की दशा है या संकटा चल रही है या मंगल परेशान कर रहा है…। पुजई करनी पड़ती थी, पाठ बिठाना पड़ता था, कभी-कभी तुला दान होता था, कभी काला धागा, कभी ताबीज, कभी गण्डा, कभी राख, कभी भभूत तमाम सारे तरीके होते थे आधियों-व्याधियों के निवारण के लिए। इतने तमाम सारे इंतजामात करने के बाद भी अगर रोग ठीक न हुआ तब उठानी पड़ती पिनश.. मरीज को शहर के अस्पताल में दिखाने के लिए।
मैं प्राचीन आर्युवैदिक उपचार पद्धति का विरोध करने वालों, परम्परागत घरेलु उपचारों को नाकारने वालों तथा झाड़ फूंक तंत्र मंत्र, पूजा पाठ, अनुष्ठान आदि परम्पराओं का वैज्ञानिक तर्क के आधार पर खण्डन करने वालों से एक अनुरोध करूंगा कि वे प्राचीन काल की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में उस समय उपलब्ध संसाधनों के आधार पर मूल्याकंन करें। निश्चय ही तब वे जान सकेंगे कि मेरे पहाड़ी गांव में प्रचलित वे विश्वास, आडम्बर व पाखण्ड किसी न किसी दृढ़ आधार पर स्थापित थे। उदाहरण के लिए आप आज किसी (डिप्रेशन) मनोरोगी को मनोचिकत्सक के पास ले जाकर हजारों लाखों रुपए खर्च कर इलाज करते हो फिर भी लम्बे उपचार के बाद भी रोग का निदान नहीं होता। पुराने समय में औझी-जगरी भी तो मनोचिकत्सक ही तो थे। तनाव, निराशा, हताशा, असुरक्षा या अन्य कारण से अवसादग्रस्त रोगी पर जब औझी या झाड़फूंक करने वाला चावल के ताड़े मारकर उच्च स्वर में फूछता था बोल कौन है तू… भूत, खबेस, हवा, पीर… बत्ता कहां से आया है… अभी बांधता हूं तेरे हाथ पैर….. तब वह पीड़ित व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक इलाज ही तो कर रहा होता था।
फिर कुछ भी हो वे अनपढ़ सही झाड़-फूंक में विश्वास करने वाले सही, पाखण्ड, आडम्बर, तंत्र-मंत्र करने वाले सही लेकिन, पर्यावरण व परिस्थितिकि के सह संबंधों को संतुलित करते हुए नैतिकता व मानवीय मूल्यों की रक्षा करते थे। आजकल के लूटमार केंद्र बने अस्पतालों की भांति न तो मरीजों के अंग निकालकर बेचते थे, न मर गए को वेंटीलेटर पर तीन-चार दिन तक लिटाए रखकर बिल बढ़ाते थे, न नकली दवाइयां बनाकर बेचते थे, न मरीज के घर वालों की जेब काटते थे, वे मानवीय संबंधों को सुदृढ़ किए हुए प्रकृति व ईश्वर से तादम्य स्थापित किए सामाजिक ताने बाने को मजबूत बनाए रखते थे।