महामंत्र ‘ॐ नम: शिवाय’ का व्यापक अर्थ व विभिन्न आयाम
अमित नैथानी मिट्ठू
ऋषिकेश, उत्तराखंड
————————————–
-ॐ नम: शिवाय सबसे लोकप्रिय मंत्र है, इसका अर्थ है कि भगवान शिव को नमस्कार है
‘ॐ नमः शिवाय’ (om namah shivay) सबसे लोकप्रिय मंत्रों में से एक है और शैव सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण मंत्र है। नमः शिवाय का अर्थ ‘भगवान शिव को नमस्कार’ (namaskar lord Shiva) है। परमात्मा को ही ‘शब्दब्रह्म’ कहा गया है। प्रणव शब्द में ‘अकार’ ब्रह्मा जी का रूप है, ‘उकार’ विष्णु का स्वरूप है, ‘मकार’ रुद्ररूप है तथा अर्धमात्रा निर्गुण परब्रह्म परमात्मस्वरूप है। ‘अकार’, ‘उकार’ और ‘मकार’ ये प्रणव की तीन मात्राएं कही गईं हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव (bhrahma, Vishnu and Shiva), ये तीन क्रमशः उनके देवता हैं। इन सबका समुच्चय जो ‘ॐकार’ है, वह परब्रह्म परमात्मा का बोध कराने वाला है। परब्रह्म परमात्मा वाच्य है और प्रणव उनका वाचक माना गया है। इसे शिव पञ्चाक्षर मंत्र या पञ्चाक्षरी मंत्र भी कहा जाता है, जिसका अर्थ पांच अक्षर, मंत्र (ॐ को छोड़कर) है। यह भगवान शिव को समर्पित है। यह मंत्र श्री रुद्रम् चमकम् और रुद्राष्टाध्यायी में ‘न’, ‘मः’, ‘शि’, ‘वा’ और ‘य’ के रूप में प्रकट हुआ है।
सिद्ध शैव और शैव सिद्धांत परंपरा जो शैव संप्रदाय का हिस्सा है, उनमें नमः शिवाय को भगवान शिव के पंच तत्व बोध और उनकी पांच तत्वों पर सार्वभौमिक एकता को दर्शाना मानते हैं।
‘न’ ध्वनि पृथ्वी का प्रतिनिधित्व करता है
‘मः’ ध्वनि पानी का प्रतिनिधित्व करता है
‘शि’ ध्वनि आग का प्रतिनिधित्व करता है
‘वा’ ध्वनि प्राणिक हवा का प्रतिनिधित्व करता है
‘य’ ध्वनि आकाश का प्रतिनिधित्व करता है
इसका कुल अर्थ है कि ‘सार्वभौमिक चेतना एक है’।
शैव सिद्धांत परंपरा में यह पांच अक्षर इन निम्नलिखित का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।
‘न’ ईश्वर की गुप्त रखने की शक्ति (तिरोधान शक्ति) का प्रतिनिधित्व करता है,
‘मः’ दुनिया का प्रतिनिधित्व करता है,
‘शि’ शिव का प्रतिनिधित्व करता है,
‘वा’ उसका खुलासा करने वाली शक्ति (अनुग्रह शक्ति) का प्रतिनिधित्व करता है,
‘य’ आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है।
तिरुमंतिरम, तमिल भाषा में लिखित शास्त्र, इस मंत्र का अर्थ बताता है। कई विद्वानों का विचार है कि इन पांच अक्षरों का दोहराना शरीर के लिए साउंड थैरेपी और आत्मा के लिए अमृत के भाँति है। ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदन्तर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इन मंत्रों के वाच्य आत्मा के देवता रूप में प्रसिद्ध हैं। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रहकर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं। इन में से आधे शुद्ध माया जगत में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है, 16 श्लोकों में इसकी महिमा वर्णित है।