जन्मदिन पर विशेष: चिपको आंदोलन के अप्रतिम योद्धा चण्डी प्रसाद भट्ट
-चंडी प्रसाद भट्ट का जन्म 23 जून 1934 को उत्तराखण्ड के जनपद चमोली के गोपेश्वर गांव में एक गरीब परिवार हुआ था। बचपन में पिता की आसामयिक मृत्यु के बाद आर्थिक संकटों के साथ बचपन बीता। कठिनाईयों के साथ शिक्षा ग्रहण की और आर्थिक संकटों से मुक्ति के लिए वर्ष 1955 के अपै्रल में गढ़वाल मोटर ऑनर्स यूनियन (जीएमओयू) में बुकिंग क्लर्क की नौकरी करने लगे। उन्होने गोपेश्वर में पढ़ाने का कार्य भी किया।
चण्डी प्रसाद भट्ट की नौकरी लगने के अगले ही वर्ष 1956 में जयप्रकाश नारायण बदरीनाथ आये थे। उस समय चण्डी प्रसाद भट्ट पीपलकोटी में बुकिंग क्लर्क के रूप में तैनात थे। जेपी के साथ उत्तराखण्ड के सर्वोदयी नेता मान सिंह रावत भी थे। भट्ट ने जब जयप्रकाश नारायण का भाषण सुना तो वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मन ही मन श्रम के महत्व, सामाजिक सद्भाव, शराब का विरोध, महिलाओं और दलितों की मजबूती के लिए काम करने का संकल्प लिया और इस दिशा में कार्य करने लगे। 11 सितम्बर 1960 को विनोबा जयंती के दिन चण्डी प्रसाद भट्ट ने पूर्ण रूप से सामाजिक सेवा का संकल्प किया और इसके लिए नौकरी छोड़ने का मन बना लिया। एक तरफ सामाज सेवा की कठिन राहें और दूसरी तरफ परिवार, आर्थिक संकट और दुनियादारी। सोचा कहीं ये मुझे विचलित न कर दें, इसलिए उन्हांने अपने स्कूल के सारे प्रमाणपत्र निकाले और उनको फाड़ दिया। इस प्रकार वापस आने के रास्ते ही बंद कर दिये। ऐसा करने के बाद उन्हें लगा कि उन्होंने अपने संकल्प की ओर एक मजबूत कदम बढ़ाया है। इससे उन्हें संतोष हुआ। दिसम्बर 1960 के प्रथम सप्ताह में विधिवत् नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया। इस प्रकार अपना जीवन पूर्ण रूप से महात्मा गांधी के विचारों का व्यावहारीकरण, जेपी और विनोवा के सिद्धान्तों, जनशक्ति के साथ शासन, शराब, छुआछूत, सामाजिक समानता, श्रम का सम्मान, श्रम के महत्व की स्थापना, समाज के कमजोर वर्गों विशेषकर दलितों और महिलाओं को संगठित करना और उन्हें अन्याय और विभिन्न सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ना सिखाने के लिए समर्पित कर दिया।
ग्राम स्तरीय श्रमिक सहकारी समिति और दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल (DGSM) का गठन
60 के दशक की शुरुआत में कामगारों के आधिकारों की रक्षा के लिए एक ग्राम स्तरीय श्रमिक सहकारी समिति का गठन किया। उद्देश्य था श्रमिकों के शोषण से मुक्ति, श्रम व गांव के महत्व की स्थापना और आत्मनिर्भरता। जहां युवा, बुजुर्ग, कुशल व अकुशल, हर जाति, धर्म, पंथ के कार्यकर्ता साथ रहें, खाएं, एक साथ काम कर सकें और उन सभी को समान मजदूरी मिले। आगे श्रमिकों के कौशल को बढ़ाने व उनका बेहतरीन उपयोग करने के लिए 1964 में चंडी प्रसाद भट्ट ने दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल (DGSM) की स्थापना की। डीजीएसएम के साथ उन्होंने स्थानीय संसाधनों पर आधारित ग्रामोद्योग श्रृंखला भी स्थापित की।
अलकनंदा के बाढ़ के प्रभावों का अध्ययन
आगे चलकर डीजीएसएम ने 1970 के अलकनंदा बाढ़ के प्रभावों का अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई से क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति में वृद्धि हुई है। बड़े पैमाने पर देखा गया कि ऊपरी अलकनंदा घाटी में 50 के दशक के शुरूआती वर्षों में और 60 के दशक के अंत में जंगलों के व्यावसायिक कटान ने 1970 में एक विनाशकारी बाढ़ का रूप लिया।
चिपको आंदोलन के लिए एक दर्जन गाँवों में बैठक
अक्टूबर 1973 में रेणी से लेकर ढाक-तपोवन तक के जंगल कटने की खबर मिलते ही चण्डी प्रसाद भट्ट ने वनाधिकारियों को उस इलाके की संवेदनशीलता से अवगत कराया। भट्ट ने अपनी संस्था दशोली ग्राम स्वाज्य मण्डल के माध्यम से 1970 में अलकनंदा घाटी में आयी बाढ़ के कारणों और उसके दुष्प्रभावों का अध्ययन किया था। इस त्रासदी से आला अधिकारियों को अवगत कराया। पर वनाधिकारियों ने अपने स्तर से इस संबंध में कोई भी कार्यवाही करने में असर्मथता जाहिर कर दी। नवम्बर 1973 में चण्डी प्रसाद भट्ट, हयात सिंह, जिला पंचायत सदस्य वासवानंद नौटियाल, तत्कालीन ब्लाक प्रकुख गोविन्द सिंह रावत, जगत सिंह आदि लोगों ने तपोवन रींगी, रेगड़ी, कर्च्छी, तुगासी, भंग्यूल, ढाक आदि एक दर्जन गाँवों में बैठकें की। चण्डीप्रसाद भट्ट गोपेश्वर-मण्डल, फाटा-रामपुर में चल रहे आंदोलनों की जानकारी भी देते कि कैसे वहां के लोगों ने पेड़ों पर चिपक कर उनकी रक्षा की। लोगों को स्थानीय जंगलों की सुरक्षा और जंगल कटने के प्रति जागरूक करते। पेड़ों सुरक्षा के लिए उन पर चिपक जाने की बात कहते।
देहरादून टाउन हाल में रेणी के जंगलों की नीलामी
2 जनवरी 1974 को देहरादून के टाउनहॉल में रेणी के जंगलों की नीलामी तय हुई। चण्डी प्रसाद भट्ट ने देहरादून पहुंचकर लोगों को संगठित किया और टाउनहाल व आसपास नीलामी के विरोध में पोस्टर चिपकाए और अहिंसक विरोध दर्ज किया। नीलामी नहीं रूकी और रेणी के जंगल नीलामी हो गए। 28 फरवरी 1974 को विधानसभा चुनाव के परिणाम निकलने के बाद रेणी के जंगलों को बचाने के लिए व चिपको आंदोलन के संचालन के लिए गोपेश्वर में समिति बनाई गई। जिसमें 15 मार्च 1974 को जोशीमठ में जंगल कटान के विरोध, चिपको के समर्थन में विशाल जुलूश निकालाना और सरकार को ज्ञापन सौंपना तय किया गया। इस हेतु 12 से 14 मार्च तक रेणी क्षेत्र के गाँवों में चिपको आंदोलन के लिए समितियां बनाई गईं व लोगों को 15 मार्च के जुलूस में आने की सूचना दी। 15 मार्च 1974 को जोशीमठ में जंगल कटान के विरोध और चिपको के समर्थन में विशाल जुलूस निकाला गया और सरकार को ज्ञापन सौंपा गया।
चिपको आंदोलन का उद्घोष करते जोशीमठ पहुँचा छात्र का दल
रेणी के जंगलों की नीलामी के बाद सरकार और विभाग के साथ ठेकेदार की ताकत भी जुड़ गई थी। 17 मार्च 1974 को ठेकेदार के आदमी मजदूरों के साथ जोशीमठ पहुँच गए। चण्डी प्रसाद भट्ट ने 22 मार्च को महाविद्यालय गोपेश्वर के छात्र परिषद से आंदोलन में भाग लेने का अनुरोध किया। जिलाधिकारी के माध्यम से उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री को पत्र भेजा गया और जंगल कटान के विरूद्ध चिपको की चेतावनी दी गई। छात्रों को जिलाधिकारी से जंगल की कटाई रोकने पर आश्वासन नहीं मिला तो 24 मार्च को 60 छात्रों का दल बस से ‘चिपको आंदोलन’ का उद्घोष करते जोशीमठ पहुँचा। उनके साथ निगरानी के लिए दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के कार्यकर्ता चक्रधर तिवारी भी थे। छात्रों ने जुलूस निकाला, पेड़ न कटने देने का संकल्प दोहराया और चिपको आंदोलन में भाग लेने की घोषणा की।
अधिकारियों ने चण्डी प्रसाद भट्ट को बातचीत में उलझा कर रखा
वन विभाग और सरकारी तंत्र दूसरी योजना पर कार्य कर रहे थे। 25 मार्च की सुबह चण्डीप्रसाद भट्ट को अरण्यपाल गढ़वाल का संदेश मिला कि वे 26 मार्च को 4 बजे उनसे बातचीत के लिए गोपेश्वर में मिलना चाहते हैं। भट्ट ने उस दिन जोशीमठ में सम्पर्क किया तो पता चला कि वन विभाग के कारिंदे, ठेकेदार व मजदूर जोशीमठ में ही हैं आगे नहीं बढ़े। वहां गोविंद सिंह रावत विभाग व मजदूरों की गतिविधि पर नजर रखे हुए हैं। अतः चण्डी प्रसाद भट्ट ने बातचीत की सहमति दे दी। वन विभाग और सरकारी तंत्र की योजना के तहत उसी दिन अर्थात 26 मार्च को घाटी के पुरुषों को अपनी भूमि का मुआवजा लेने के लिए चमोली बुला दिया गया। अरण्यपाल गढ़वाल, अन्य जनपदीय अधिकारियों के साथ दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल गोपेश्वर में पहुँचे। इधर, उन्होंने चण्डी प्रसाद भट्ट को बातचीत में उलझा कर रखा और उधर रेणी में 26 मार्च 1974 को जो घटा वो चिपको के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है। रेणी के चिपको आन्दोलन में महिलाएं सबसे आगे थीं। वे पेड़ों पर चिपकने के लिए संकल्पबद्ध होकर मैदान में आ डटीं थीं। रेणी में चिपको आंदोलन ने इसलिए भी विराट स्वरूप ग्रहण किया कि उस दिन वहां महिलाओं का नेतृत्व व उनकी अद्भुत भागीदारी रही। रेणी के चिपको में स्थानीय लोगों, छात्रों, महिलाओं व किसानों ने अभूतपूर्व एकता के साथ अपनी सक्रिय भूमिका निभाकर मिसाल कायम की और अंततः वनों की कटाई स्थगित हुई।
मण्डल और केदार घाटी में चिपको
रेणी चिपको आन्दोलन से पूर्व वर्ष 1973 में गोपेश्वर के निकट मण्डल घाटी में इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी को जंगलों के कटान का ठेका मिल चुका था। मार्च में कम्पनी के आदमी गोपेश्वर पहुंचे। इस कटान का विरोध करने व इन जंगलों को बचाने के लिए दशोली ग्राम स्वराज्य मण्डल के चण्डी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में स्थानीय लोग एकजुट हुए। अहिंसक आन्दोलन की रणनीति तय करते हुए अनेक प्रकार के विचारों और सुझावों के साथ चण्डी प्रसाद भट्ट द्वारा प्रस्तावित रणनीति में पेड़ों पर अंग्वाल्ठा मारना और चिपकने के विचार पर सहमति बनी। उसी वर्ष केदारघाटी में रामपुर-फाटा के जंगलों को बचाने के लिए ‘चिपको’ के विचार और प्रक्रिया का सफल प्रयोग किया गया।
आन्दोलनो में मजबूत कड़ी की तरह जुड़े रहे चण्डी प्रसाद भट्ट
मण्डल, केदार घाटी और रेणी के चिपको आंदोलन की सफलता के बाद उत्तराखण्ड और हिमालय के दूसरे क्षेत्रों में भी वनों को बचाने के लिए इस प्रकार के आन्दोलन हुए और सफलता मिली। देश और दुनिया में चिपको आन्दोलन को बड़ी ताकत के रूप में देखा जाने लगा। इसमें अहिंसा का चरम था। ग्रामीण-घरेलू स्वरूप और सोचने का ढंग। इसे समस्या के समाधान के लिए अति प्रभावी और व्यावहारिक माना जाने लगा। इन आन्दोलनो के आगे और पीछे चण्डी प्रसाद भट्ट एक मजबूत कड़ी की तरह जुड़े रहे। रेणी क्षेत्र में महिलाओं में जागृति, चमोली के सामाजिक कार्यकर्ताओं व ग्रामीणों में वनों की सुरक्षा के प्रति जागरूकता और तीव्रता पैदा करने में चण्डी प्रसाद भट्ट का अप्रतिम योगदान रहा। भट्ट काफी समय से लगातार वन विनाश से समाप्त होने वाले भूमि, मकान, मोटरमार्ग व गाँव के समाप्त होने के दृश्यों और खतरों से जनमानस को सचेत करते आ रहे थे। मण्डल, केदार घाटी और रेणी के चिपको आन्दोलनों के बाद के वर्षों में भी उन्होने लगातार इस चेतना की मशाल को प्रज्ज्वलित रखा।
हिमालय की यात्राएं और चिपको का विस्तार
हिमालय पारिस्थितिकी तंत्र को समझने के लिए, हिमालय के पर्यावरण व विभिन्न भागों में लोगों की समस्याओं और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति आदि का अध्ययन करने के लिए चण्डी प्रसाद भट्ट ने पूरे हिमालय की यात्रा की। इनमें सिंधु से गंगा और ब्रह्मपुत्र, गोदावरी व उनकी सहायक नदियाँ, पश्चिमी घाट व पूर्वी घाट की यात्राएं शामिल हैं। अपनी यात्रा के दौरान वे अपने चिपकों के अनुभवों, लोकज्ञान और अध्ययनो को साझा करते रहे। लोगों को अपना मार्गदर्शन देते रहे। देश के विभिन्न हिस्सों में चलाये जा रहे रचनात्मक तरीके से संघर्ष, सामुदायिक आन्दोलनों में भी सक्रिय रूप से भाग लेते हुए लोगों को जागरूक करते रहे। मण्डल, रामपुर-फाटा और रेणी चिपको आंदोलन की गूँज उत्तराखण्ड के साथ-साथ पूरे देश और दुनिया में फैलाते रहे।
पर्यावरण विकास शिविरों का आयोजन
पिछले 5 दशकों से वे ऊपरी अलकनंदा बेसिन में ढलानो को फिर से जीवंत करने के लिए पर्यावरण विकास शिविरों के माध्यम से स्थानीय समुदाय की भागीदारी, विशेष रूप से महिलाएं और युवा के साथ सक्रिय रूप से काम कर रहे हैं। ये शिविर स्थानीय लोगों और विशेषज्ञों, योजनाकारों के बीच बेहतर बातचीत के लिए मंच प्रदान कर रहे हैं। पर्यावरण और विकास की समझ को विकसित करने, नीति नियन्ताओं, निर्णय लेने वाले अधिकारियों, प्रशासकों को विशिष्ट क्षेत्र की आवश्यकताओं के अनुरूप योजना बनाने के लिए सेतु का कार्य कर रहे हैं।
भट्ट का लेखन और पुस्तकें
देश और दुनिया की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर उनके लेख प्रकाशित होने रहे हैं। उनकी अब तक 7 पुस्तकें- प्रतिकार के अंकुर (हिंदी उपन्यास), अधूरे ज्ञान और काल्पनिक विश्वास पर हिमालय से छेड़खानी घातक, हिमालय में बड़ी परियोजनाओं का भविष्य (Future of Large Projects in the Himalaya) मध्य हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र, चिपको के अनुभव, पर्वत-पर्वत बस्ती-बस्ती, गुदगुदी (आत्मकथा) प्रकाशित हो चुकी हैं। गुदगुदी (आत्मकथा) का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशनाधीन है।
कमेटियों-समितियों की अध्यक्षता, सदस्यता और सलाहकार
चण्डी प्रसाद भट्ट प्रतिष्ठित राष्ट्रीय व अर्न्राष्ट्रीय स्तर की समितियों, कमेटियों और आयोगों के सम्मानित सदस्य के रूप में अपने अनुभव और व्यावहारिक ज्ञान को भी साझा करते आ रहे हैं। वे भारत सरकार द्वारा गठित वनो के लिए 20 साला कार्ययोजना बनाने के लिए गठित राष्ट्रीय स्तर की समिति, राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड, आयुष विभाग, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा गठित ‘उच्च हिमालयी औषधीय पादप हेतु गठित टास्क फोर्स (Task force on High altitude medicinal plants) और विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान परिषद, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड (आईसीएआर) द्वारा गठित सलाहकार समिति के अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएं देते आ रहे हैं। भट्ट राष्ट्रीय वन आयोग, नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी के शासी निकाय (member of the governing body), मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार भारत सरकार द्वारा गठित ग्लेशियरों पर विशेष अध्ययन समूह समिति (Committee on Special Study Group on Himalayan Glaciers), विकसैट(VIKSAT) के शासी निकाय; डीएसटी, भारत सरकार द्वारा गठित ‘हिमालय पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन’(Committee on National Mission for sustaining Himalayan Ecosystem) की कोर समिति; पॉलिसी प्लानिंग ग्रुप उत्तराखण्ड, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित ‘महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती पर गठित राष्ट्रीय स्मरणोत्सव समिति’( National committee for commemoration of 150th birth anniversary of Mahatma Gandhi), एआईसीटीई और अखिल भारतीय बोर्ड-यूजीईटी (AICTE, All INDIA BOARD- UGET.) के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं देते आ रहे हैं। साथ ही वे प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार, भारत सरकार द्वारा उत्तराखण्ड में गठित ग्रामीण प्रौद्योगिकी कार्य समूह (Rural Technology Action Group-RUTAG) के सलाहकार भी हैं।
पुरस्कार और सम्मान
चण्डी प्रसाद भट्ट को अब तक रेमन मैग्सेसे पुरस्कार-1982, अमेरिका के अरकंसास के गवर्नर द्वारा सद्भावना राजदूत के रूप में दिया जाने वाला अर्कांसस ट्रैवलर सम्मान-1983, पद्मश्री-1986, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) वैश्विक पुरस्कार-1987, स्कूल ऑफ फंडामेंटल रिसर्च अवार्ड कलकत्ता-1990, सीए, यूएसए द्वारा पर्यावरण संरक्षण और सामुदायिक सेवा में योगदान के लिए भारतीयों को दिया जाने वाला ‘सामूहिक कार्रवाई पुरस्कार’-1997, श्री शिरडी साईं बाबा देवस्थानम, देहरादून द्वारा समाज सेवा के क्षेत्र में अनुकरणीय कार्य के लिए ‘श्री शिरडी साईं बाबा पुरस्कार’-1999, पद्म भूषण-2005, गोविंद बल्लभ पंत कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर उत्तराखंड द्वारा डॉक्टर ऑफ साइंस (डीएससी) (ऑनोरिस कौसा) 2008, रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड आईबीएन 18 नेट, आईबीएन लोकमत, आईबीएन 7, सीएनएन-आईबीएन द्वारा रियल हीरोज-लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड 2010, कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल उत्तराखंड द्वारा डॉक्टर ऑफ लेटर्स (डीलिट) (ऑनोरिस कॉसा), 2010, एनडीटीवी और टोयोटा द्वारा ग्रीन लेजेंड-ग्रीन्स ईको अवार्ड 2010, आरबीएस. अर्थ हीरोज अवार्ड 2011, भारत के राष्ट्रपति द्वारा गांधी शांति पुरस्कार, 2013, श्री सत्य साई लोक सेवा ट्रस्ट द्वारा पर्यावरण की श्रेणी में मानव उत्कृष्टता के लिए श्री सत्य साई पुरस्कार 2016, ग्राफिक ऐरा विश्वविद्यालय देहरादून द्वारा डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी (ऑनोरिस कॉसा) 2017, अमर उजाला द्वारा लाइफ टाइम अमर उजाला उत्कृष्टता पुरस्कार 2017, नेशनल ज्योग्राफिक एंड सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज द्वारा पृथ्वी भूषण पुरस्कार 2017, विनोबा सेवा प्रतिष्ठान भुवनेश्वर द्वारा विनोबा शांति पुरस्कार,2018, आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर द्वारा डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी (ऑनोरिस कॉसा) 2018, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय एकता के लिए इंदिरा गांधी पुरस्कार 2017-18, श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टर ऑफ लिटरेचर 2019, राष्ट्रीय सकारात्मकता पुरस्कार 2021 आदि से नवाजा जा चुका है।